संदर्भ और दृष्टि

सामाजिक संदर्भ
सर्वेश्वर ने अपन पत्रकारीय लेखन में सदैव आम आदमी की पक्षधरता की है । उनकी पत्रकारिता में यथास्थितिवाद एवं जड़ताओं के खिलाफ खुला विद्रोह है । दिनमान में खासकर चरचे और चरखे स्तंभ के अंतर्गत लिखी गई टिप्पणियां इसका उदाहरण हैं । वे बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने के अभ्यस्त हैं । उनकी टिप्पणियों में सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने एवं व्यवस्था के खिलाफ गहरा एवं पैना व्यंग्य छिपा है । उनकी टिप्पणियां वर्तमान भारतीय समाज के भ्रमों, भटकावों और विचार-व्यवहार केअन्तर्विरोधों की आलोचना करती हुई उन ताकतों की ओरइशारा करती हैं जो अंधेरों की जनक हैं । साथ ही उनकी तमाम टिप्पणियां ऐसी हैं जो पाठक के मन में अंधेरों एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ सामाजिक बदलाव की चेतना जगाती हैं । ऐसा करते हुए सर्वेश्वर ने काल्पनिक बातचीत रिपोर्ताज, फन्तासी, लोककथा आदि विविध रूपों का सहारा लिया है और पत्रकारिता कोएक नया भाषायी संस्कार देने की कोशिश की है । वास्तव में उनकी चिंताएं अपने समाज को बेहतर बनाने की छटपटाट से लैस प्रत्येक पाठक को ज्यादा साहस और सम्बल प्रदान करती नजर आती हैं। सर्वेश्वर की पत्रकारिता का हम निम्न सन्दर्भों में अध्ययन कर सकते हैं –
समाजिक सन्दर्भ
सर्वेश्वर वक्त पर नजर रखने वाले पत्रकार थे । अपने परिवेश में घट रही घटनाओं पर उन्होंने साफ राय दी है । सवाल आनंद स्वरूप वर्मा के दिल्ली आकाशवाणी से निकाले जाने का हो या उत्तरार्द्ध नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादक प्रोफेसर सव्यसाची की आंतरिक सुरक्षा अधिनियम में गिरफ्तारी का । सर्वेश्वर की कलम ऐसे सवालों पर खामोश नहीं बैठती । वे अपना प्रतिरोध दर्ज कराते हुए देश प्रेमियों को पहचानो नामक टिप्पणी में लिखते हैं – “सरकार के लिए देश प्रेम का अर्थ मात्र सत्ता समर्थन रह गया है, जबकि लोकतंत्र अपनी विरोधी विचारधारा को भी, यदि वह देश के हित में है, पनपने का पूरा मौका देता है ।... जो दुर्नीति और अन्याय की पहचान जगाता है, सामाजिक विषमता से परिचित करता है, किसी भी तरह के शोषण से टकराने के ले ललकारता है, जाति भेद, अशिक्षा, अंधविश्वास, साम्प्रदायिकता की विषाक्त जड़ों में मौजूदा अर्थतंत्र की असमानता में खोजने की कोशिश करता है... वह देशप्रेमी है ।”1 (चरचे और चरखे – पृष्ठ 215) वे आनंद स्वरूप वर्मा एवं सव्यसाची के प्रसंगों पर आहत हैं वे आह्वान करते हैं कि सच्चे देशप्रेमियों की पहचान की जानी चाहिए ।

सर्वेश्वर में एक संवेदनशील इन्सान मौजूद था, जो किसी भी विपन्न, असहाय को लेकर पिघल उठता था । वे साधारण आदमी को भी अपनी लेखनी में जगह देने के पक्ष में थे । गरीबी एवं मौसम से लड़ रही एक औरत के बारे में सर्वेश्वर सर्दी और वर्गभेद नामक टिप्पणी में लिखते हैं – “उसे देखकर मैं अक्सर आदमी की सहन शक्ति के बारे में सोचा करता था । बन्द कमरे में रजाइयों के भीतर दुबक जाने पर जब भी उसकी ओर ख्याल जाता तो एक अजब बेचैनी पैदा होती ।... उसने मौसम को पराजित किया है । उस मौसम को, जिसने सबको पराजित किया ।” वे यहीं पर अपनी बात समाप्त नहीं करते । वे समाज के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग की संवेदना पर हल्ला बोलते हुए इसी टिप्पणी में आगे लिखते हैं – “यह कहना असंगत है कि समाज को उससे कोई सरोकार न था । मैंन अक्सर मजदूरों को, जो अपने काम के नाते छोलदारी डालकर पड़े रहते थे, उसे कुछ लेते-देते देखा था । हां उन लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों के बारे में नहीं जानता जिनका यह इलाका है । शायद उनका ध्यान कभी उधर न गया हो ।... लेकिन मजदूरों के साथ दूर बैठी उसे कुल्हड़ में चाय पीते या बीड़ी पीते जरूर देखा । इतना जरूर लगता था कि गरीब के प्रति गरीब की ही हमदर्दी हो सकती है ।”2
(चरचे और चरखे पृष्ठ – 215)

सर्वेश्वर शिक्षा-जगत में फैले अराज पर बहुत दुखी थे । वे मानते थे कि इस क्षेत्र में एक ठहराव सा आ गया है । जहाँ प्राध्यापक एवं विद्यार्थी दोनों अपने कर्तव्यों से डिगे हैं । वे विश्वविद्यालयों में हो रहे सोध कार्यों एवं उनके गिरते स्तर पर चिंतित थे । पण्डित बनने का आसान रास्ता नामक अपने आलेख में सर्वेश्वर शोध के क्षेत्र में मचे अराज की जमकर बखिया उधेड़ते हैं ।

समाज में फैली आपराधिक गतिविधियों चोरी, डकैती, छीना-झपटी, लूटपाट को भी सर्वेश्वर ने अपनी कलम के निशाने पर रखा । वे अपराधों के छोर नामक टिप्पणी में इनके खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कराते हैं और सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था को इसके लिए जिम्मेवार ठहराते हैं। अपराध के कारणों पर चर्चा करते हुए वे पुलिस महकमें के आपसी अन्तर्विरोधों को भी इसका कारण बताते हैं । वे कहते हैं – “गुलाम में आदमी को जो मार पड़ती थी वह अप्रत्यक्ष थी, दिखाई न देती थी । आजादी में जो मार पड़ती है वह प्रत्यक्ष है, दिखाई देती है ।”3
(चरचे और चरखे पृष्ठ 30)

सरकार के काम करने के तौर-तरीकों तथा समस्याओं से निपटने के उसके लापरवाह ढंग पर सर्वेश्वर खासे क्षुब्ध दिखते हैं । बड़ी से बड़ी त्रासदी या समस्या पर जांच कमेटी बना कर अपने दायित्व से पल्ला झाड़ लेने वाली सरकारी मशीनरी पर वे – “जांच कमेटी बैठाओ और छुट्टी पाओ” शीर्षक लेख में तीखी टिप्पणी करते हैं । संवादों के जरिए मशीनरी के चाल-चलन पर टिप्पणी करते हुए सर्वेश्वर इस लेख का नाटकीय अंत एक कविता से करते हैं –

“क्या शान से बैठी हुई है जांच कमेटी
क्या जान के बैठी हुई है जांच कमेटी
क्या मान के बैठी है जांच कमेटी
यह राज कभी भी नहीं तुम जान पाओगे
मरते रहोगे यूं ही या मारे जाओगे ।”4
(चरचे और चरखे, पृष्ठ 30)

सर्वेश्वर सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में यथास्थिति के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों एवं प्रतिरोधों पर नजर रखते थे, और उन्हें अपने स्तंभ में जगह देते थे । कार्यक्रम की विशालता एवं भव्यता उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं होती थी । वे उसके प्रदेय एवं उस आंदोलन से जुडड़ेलोगों के जज्बे से प्रभावित होते थे । इस संदर्भ में सोशलिस्ट यूनिटी सेन्टर आफ इण्डिया के दिल्ली में निकले एक जुलूस का हवाला देते हुए “चेहरे बता रहे थे” नामक टिप्पणी में वे लिखते हैं – “दिल्ली लूसों एवं प्रदर्शनों की नगरी है – लेकिन जैसा जुलूस इस स्तंभकार ने चार नवंबर को देखा, शायद कभी देखने को मिला हो ।... अनुशासन और भव्यता जो प्रभाव डालते थे, वह उल्लेखनीय न होता यदि इस जुलूस में देखने वाले के अंदर एक बेचैनी पैदा करने की क्षमता न होती ।... इस जुलूस में चेहरों में एक बेचैनी थी और नारे लगाती हई आवाज बेधती थी ।”5
(चरचे और चरखे पृष्ठ 51)

सर्वेश्वर ऐसे प्रसंगों पर सहज नहीं रह पाते थे। अन्याय के प्रतिरोध के सवाल पर उठने वाले हाथों में उनका हाथ भी लहराने लगता था ।वे अपनी बुद्धिजीवी आकड़ को छोड़ उस अभियान का अंग बन जाते थे । वे यहाँ एक ऐसे इन्सान के रूप में सामने आते हैं जो स्थितियों से निरपेक्ष नहीं रहना चाहता, जंग में शरीक होना चाहता है और सर्वेश्वर की लेखनी इस जंग में शरीक हो जाया करती थी ।

इसी संदर्भ में ‘आंधी-आंधी की टक्कर’ नामक टिप्पणी में वे एक ऐसे सम्मेलन की चर्चा करते हैं, जिसे दिल्ली के राष्ट्रीय अखबारों ने नजरअंदाज कर दिया था । दिल्ली में आयोजित देश के 200 जनसंगठनों के राष्ट्रीय सम्मेलन के बारे में वे लिखते हैं – “जो पेशेवर राजनीतक दलों के लोग नहीं हैं, आम किसानों और मजदूरों के बीच से आए लोग हैं, अपने संकल्पों एवं एकता से किसी भी आंधी को टक्कर दे सकेंगे । उनकी निरंकुशता चलने न देंगे ।”

सर्वेश्वर के मन में समाज में बढ़े अवमूल्यन एवं उसके प्रति आम लोगों की खामोशी का तीखा गुस्सा था । ‘होली का काल पात्र’ नामक टिप्पणी में वे समाज में फैली विसंगतियों को एक व्यंक्यात्मक टिप्पणी के माध्यम से खूब कोसते हैं । वे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था के ताने-बाने एवं उसके प्रति खामोश लोगों को अपना निशाना बनाते हैं । ‘भोथरा चाकू’ नामक टिप्पणी में वे देश के बुद्धिजीवियों की स्थिति पर अपने स्तंभके चर्चित पात्र शर्मा जी के माध्यम से कड़ी प्रतिक्रचा दर्ज कराते हैं – “इस देश का आम आदमी फिर भी बेहतर है । बुद्धिजीवी पोच और लचर है, बिना रीढ़ का है। कायर और डरपोक है । इतिहास की गति में अपने योग को नहीं पहचानता । सोचने-विचारने में असमर्थ और सुविधाजीवी है ।”6
(चरचे और चरखे पृ. 74)

समाज के वंचित वर्गों के प्रति उनके मन में गहरा स्नेह भाव था । उनकी इस भावना को उनके लोहियावादी-समाजवादी विचारों ने और घनीभूत किया था । ‘मण्डी गांव के हरिजन’ नामक दिनमान में लिखी अपनी टिप्पणी में वे गांवों में वंचित वर्गों के खिलाफ हो रहे सामाजिक-प्रशासनिक भेदभाव व अन्याय का खुलासा करते हैं । संवाद की शैली में लिखी इस टिप्पणी में उनका एक पात्र कहता है – “कानून तो ताकत वालों के लिए है। उस वर्ग के लिए है, जिसने इसे बनाया है । इसलिए ताकतवाला कानून तोड़ भी देता है तो उसे कुछ नहीं होता ।” समाजिक न्याय की जरूरत को ये गहरे महसूसते हैं इसीलिए उनके स्तंभ के लोकप्रिय पात्र शर्मा जी कहते हैं – “पूरा समाज छोटे-छोटे स्वार्थों में बांट दिया गया है। कहीं बड़े स्वार्थ रहे नहीं, जिसके लिए सब एकजुट हो सकें... उम्मीद की जानी चाहिए कि इस देश में कुछ बड़े स्वार्थ भी कभी होंगे, जिनके लिए सब मिलकर लड़ेंगे । हरिजनों के अस्तित्व की लड़ाई को एक बड़ा स्वार्थ बनाया जाना चाहे और इसके लिए सबको लड़ना चाहिए ।”7 (चरचे और चरखे पृ. 81) ये टिप्पणी बताती है कि सर्वेश्वर के मन में समाज में फैली गैरबराबरी के खिलाफ कैसी बेचैनी थी । वे अन्याय का समूल खात्मा चाहते हैं । किसी भी कीमत पर समतावादी समाज का निर्माण उनकी प्राथमिकता की सूची में सबसे पर है । इस नजरिए से सर्वेश्वर समय की नब्ज पर पकड़ रखने वाले पत्रकार थे।
सर्वेश्वर अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में थे । दिल्ली में प्वाइण्ड आफ व्यू नामक अंग्रेजी पत्रिका के एक अंक में मणिपुर की स्थिति पर लिखे गए एक आलेख के लिए लेखक को पंजाब सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर लेखक को राजद्रोही मानने पर सर्वेश्वर इसे सहन नहीं कर पाते। उक्त लेख में मणिपुर के खस्ता हालात के मद्देनजर लेखक ने वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की सलाह दे डाली थी । सर्वेश्वर मानते हैं कि यह बात राजद्रोह कैसे मानी जा सकती है ? उन्होंने कहा समाधान से सहमत न होना एक अलग बात है पर संविधान के अंतर्गत दिए गए विकल्पों में एक को सुझाना राजद्रोह कहाँ है ? सर्वेश्वर ‘दृष्टि और कुदृष्टि’ नामक टिप्पणी में सवाल करते हैं, “वह इस नतीजे पर तो नहीं पहुंचा कि राज्य को चीन या अमेरिका के हवाले कर दिया जाए ? उसका हल संविधान के बाहर न था, फिर वह गिरफ्तार क्यों है ? क्या किसी राज्य के मंत्रियों को बदलने की मांग करना राजद्रोह है ?... लोकतंत्र में दृष्टि की लड़ाई दृष्टि से होती है । किसी भी स्थिति के आंकलन में एक दृष्टि रखी गई, उसका जवाब दूसरी दृष्टि, जो या तो उसका अधूरा पक्ष दिखाए, उसे पूरा करे या फिर दूसरा आंकलन प्रस्तुत करे । लेकिन जब दृष्टि की लड़ाई कुदृष्टि से हो जाती है तो वह तानाशाही है । तुमने एक दृष्टि का आंकलन मेरी दृष्टि से न किया, दूसरी दृष्टि से किया – चलो जेल में, चलो स्वर्ग में ।”8
(चरचे और चरखे पृ, 90)

सर्वेश्वर सत्य के प्रति अपने आग्रह को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं । वे लिखते हैं – “हर देश के जीवन में, जब वह आंतरिक संकटों के ऐसे मोड़ पर खड़ा हो जैसे कि अपना देश, तो इस बात का महत्व नहीं रह जाता कि सत्य कौन कह रहा है, महत्व इस बात का है सत्य कहां जा रहा है । हम सत्य सुनना चाहते हैं ।”9
(चरचे और चरखे पृ. 89)

सर्वेश्वर समा में फैल रही अपसंस्कृति एवं युवा पीढ़ी पर पड़ते सके दुष्प्रबाव को लेकर खासे चिंतित थे । साथ ही युवा पीढ़ी में आ रहे पाश्चात्य प्रभावों की अतिव्याप्तता से खासे क्षुब्ध थे । इस संदर्भ में ‘नंगा नाच’ शीर्षक से अपनी टिप्पणी में वे तमाम उदाहरण देते हैं जो युवाओं ने पश्चिमी तर्ज पर नकल करके पाए हैं । उनका एक पात्र कहता है, “इनका दिमाग अंग्रेजी की पत्रिकाएं खरा कर रही हैं ।... इस तरह का नंगा नाच तो अहम और दम्भ का ही नंगा नाच है । व्यवस्था का विरोध इसमें नहीं है । क्योंकि विद्यार्थियों का यह वर्ग, है तो खाते-पीते उच्च वर्ग का ही, जिसका सपना भी ऊँची-ऊँची नौकरियां ही हैं । ये बच्चे क्रांतिकारी बनने का ख्वाब नहीं देखते बल्कि क्रांतिकारी ताकतों को कुचलने वाले एक बड़े कुचक्र का अंग बनने के लिए तैयार किए जा रहे हैं । इसलिए इनका नंगा नाच विरोध या प्रतिभाभंजन के लिए नहीं है, वह केवल जुनून व मनोरंजन के लिए है । जो अन्ततः न खुद को लिबरेट (मुक्त) करता है न दूसरों को । बल्कि सामाजिक, आर्थिक समस्याओं से अपने को असंवेदनशील कर एक व्यापक षड़यंत्र का शिकार हो जाता है ।”10
(चरचे और चरखे पृ. 119)
इस संदर्भ में दिल्ली के मिरान्डा कॉलेज के सामने लड़कों द्वारा किए गए नंगे नाच की घटना को उद्ध-त करते हुए वे इसे अपसंस्कृति का प्रतीक बताते हैं ।

देश की शिक्षा व्यवस्था में फैली खामियों की ओर सर्वेश्वर बराबर संकेत करते रहते थे । वे शिक्षा में बुनियादी बदल के पक्ष में थे । नौजवान पढ़ लिखकर सिर्फ नौकरी का ही नहीं समाज का भी विचार करे, वे ऐसा सोचते थे । वे युवाओं में एक सामाजिक दृष्टि, सामाजिक समझ पैदा करने के पक्ष में थे । वे चाहते थे बदलाव की यह शुरुआत शिक्षा-परिसरों से हो । वहीं युवाओं को सही ढंग से सोचने विचारने का मौका दिया जाए कि वह अपने फैसले खुद कर सकें । समाज के प्रति अपनी दृष्टि का निर्माण कर सकें । वे ‘पुर्जे ढल रहे हैं’ नामक टिप्पणी में वे अपने स्तंभ के पात्र शर्मा जी से इसी दर्द को व्यक्त कराते हैं – “यानी व्यवस्था अपनी शर्तों पर पढ़ाएगी, जो चाहेगी सो पढ़ाएगी, अपनी शर्त पर योग्यता जांचेगी । अपनी शर्त पर जीविका देगी । बेचारे विद्यार्थी की कोई शर्त नहीं रह गई है । सब शर्तें व्यवस्था की हैं और उसकी शर्तों पर पिसते रहने के लिए विद्यार्थी ढाला जाता है । वह किताबें रटता है, परीक्षा देने की चालाकी सीखता है । परीक्षक मेहनत से मुँह चुराता है । कॉपियां जांच कर सर की बला टालता है । अपनी रोजी कमाता है और व्यवस्था विद्यार्धी को एक ढले पुर्जे की तरह जहाँ चाहती है, वहाँ लगाती है ।... यह है व्यवस्था की कला ।”
वे युवाओं से सामाजिक परिवर्तन एवं बदलाव का औजार बनने की अपेक्षा पालते हैं । इसी के चलते चरचे और चरखे के लोकप्रिय पात्र शर्मा जी रास्ता बताते हैं – “ऐसे स्कूल खोले जाएं जहाँ बिना सरकारी मदद के सही शिक्षा दी जाए । दो घण्टे से ज्यादान पढ़ाया जाए । छात्रों को समाज परिवर्तन की ताकत के रूप में तैयार किया जाए, यथास्थिति बनाए रखने के पुर्जे के रूप में न ढाला जाए । सारे देश में ऐसे सौ स्कूल खुल जाएं तो हवा बदलने लगेगी ।”11
(चरचे और चरखे पृ. 130-131)
इन अर्थों में सर्वेश्वर अपनी टिप्पणी में समस्याएं ही नहीं बताते, वे उसके समाधान भी बताते हैं । उनकी यही व्यावहारिक समझ उन्हें अपने समय के पत्रकारों से अलग एवं खास दर्जा दिलाती है ।

युवाओं में भविष्य के असुरक्षाबोध के चलते बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्तियों ने सर्वेश्वर को विचलित कर दिया था । वे आत्महत्या के इस बढ़ते रोग की जड़ें हमारी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था में तलाशते हैं । वे साफ मानते हैं कि आत्महत्याओं की नींव पर खड़ा कोई समाज श्रेष्ठ समाज नहीं कहा जा सकता । वे मानते हैं कि ऐसे सवाल परसबको विचलित होना चाहिए और इस प्रवृत्ति को रोकने के प्रयास करने चाहिए । ‘आत्महत्याओं की नींव पर खड़ा समाज’ नामक लेख में सर्वेश्वर कहते हैं – “आत्महत्या चाहे प्रेम में हो, चाहे नौकरी में असंतोष से हो, चाहे छात्र जीवन के अन्याय और घुटन से हों, किसी जीवित समाज के ले कलंक है । इसे समझना समाज के कर्णधारों के लिए बहुत जरूरी है – अगर कोई जिंदा नहीं रहना चाहता तो क्यों ?... हर आत्महत्या समाज में फैल रही सड़ांध की सूचक होती है । वह सड़ांध मानवीय रिश्तों में हो सकती है, रोजगार में हो सकती है, शिक्षा व्यवस्था में हो सकती है ।”12
(चरचे और चरखे पृ. 140)

सर्वेश्वर मानते हैं कि इस आत्महत्या के पीछे छिपे कारणों की तलाश होनी ही चाहिए । उसे थाने में दर्ज कर खत्म नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उस पर अध्ययन के सहारे यह पता चलना चाहिए कि पूरी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्ता में खोट कहाँ है ?

स्त्री के सम्मान और अधिकारों को लेकर सर्वेश्वर के मन में एक अग्रगामी सोच थी । वे परिवर्तन की बयार महसूसते थे और उसमें से बेहतर दिखने वाली प्रवृत्तियों की सराहना करते थे । वे एक छात्रा को एक लड़के द्वारा बस में थप्पड़ मार देने की घटना को अशोभनीय मानते हुए उसकी भर्त्सना करते हैं । वे लिखते हैं – “यह घटना अभद्र, अशोभनीय ही नहीं घोर निंदनीय है । आप बस में जाती एक लड़की को झापड़ मार सकते हैं, सिर्फ यह दिखाने के लिए कि स्त्री-पुरुष समानता उसका नारा गलत है । कम से कम शारीरिक रूप से पुरुष स्त्री से ज्यादा ताकतवर है ।”13
(चरचे और चरखे पृ. 163)
सर्वेश्वर पिछड़ी जातियों एवं दलितों पर हुए बर्बर अत्याचार की घटनाओँ से आहत थे । वे देश में घट रही दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर बराबर अपनी प्रतिक्रिया जताते रहे । सवर्णों एवं पुलिस द्वारा दलितों और वंचितों पर हुए हमलों को उन्होंने रेखांकित किया । वे सामाजिक गैर बराबरी एवं अन्याय के खिलाफ बराबर अपनी कलम चलाते रहे । उनका साफ मानना था कि पुलिस का चेहरा बेहद अमानवीय है । वह वंचितों पर कहर ढाती है, क्योंकि वह पढ़ाई एवं नौकरी के बावजूद सामंती संस्कारों को नहीं छोड़ पाई है । ‘पुलिस अत्याचारी क्यों’ नामक लेख में वे अपनी टिप्पणी में इसका एकमात्र रास्ता पुलिस में हरिजनों एवं आदिवासी वर्गों की नियुक्ति में देखते हैं । वे लिखते हैं – “देश में कोई 60 प्रतिशत से अधिक तो हरिजन और आदिवासी होंगे ही । यदि पुलिस में 60 प्रतिशत लोग हरिजन और आदिवासी हो जाए... पुलिस का पेशा हरिजनों और आदिवासियों पर उतना अत्याचार नहीं करता, जितना पुलिस का ब्राह्मण और ठाकुर करता है । सवर्ण करता है । जब तक पुलिस सवर्णों की रहेगी तब तक पुलिस हरिजनों, आदिवासियों की शत्रु रहेगी ।”14
(चरचे और चरखे पृ. 176)

इस प्रकार सर्वेश्वर ने तमामा सामाजिक सवालों एवं प्रसंगों को अपनी नजर से देखा है और लोगों को इन संक्रमणों से निकलने का रास्ता भी बताया है । सामाजिक परिवेश की स्वच्छता, समानता एवं बराबरी का हक लोगों को दिलाना उनकी प्राथमिकता थी । ऐसी तमाम जगहों पर उनकी नजर ठहर जाती थी, जहाँ स्वनामधन्य पत्रकार पहुंचना नहीं चाहते थे । वे खबरों के पीछे भागने वाले जीव न थे, उन्होंने साधारण प्रसंगों से असाधारण खबरें और अर्थ निकाले । उनके महत्व को रेखांकित किया । ऐसे प्रतिरोध जो सामाजिक एवं राजनीतिक प्रभाव के नजरिए से महत्वहीन थे, पर उनकी कोशिश एवं सत्य के प्रति उनके आग्रह को सर्वेश्वर न सिर्फ पहचाना वरन दिनमान के व्यापक पाठक जगत को अपने अनुभवों का साझीदार बनाया । सामाजिक सरोकार की यह पत्रकारिता सर्वेश्वर की औदार्यता एवं संवेदनशीलता का जीवंत प्रमाण है ।

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