साहित्यिक संदर्भ


पत्रकारिता के साथ सर्वेश्वर साहित्य के क्षेत्र में भी एक बड़े नाम थे । उनकी साहित्यिक ऊँचाई समय के पत्रकारों के बीच उन्हें विशिष्ट बनाती है । वे एक रचनात्मक ऊर्जा से लैस पत्रकार थे । साहित्यिक संदर्भों का ज्ञान उनके परिवेश से उन्हें प्राप्त हुआ था । इसलिए साहित्यिक सवालों पर उन्होंने दिनमान में खूब लिखा । साहित्य के क्षेत्र में चलने वाली चर्चाओं एवं विवादों को उन्होंने अपने पत्रकारिता लेखन में प्रमुखता दी । वे साहित्यिक समारोहों, पुरस्कार समारोहों से लेकर साहित्यकारों के निधन पर टिप्पणी लिखने जैसा सारा काम दिनमान के लिए करते रहे । आज जहाँ साहित्यिक समाचारों को हिंदी पत्रकारिता में न्यूनतम स्थान मिलता है, दिनमान में साहित्यिक सरोकारों से जुड़े समाचार लेकन एवं बहसों को सदैव प्राथमिकता दी गई । निश्चय ही इसके पीछे दिनमान के साहित्यिक रुझान के संपादकों अज्ञेय, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल और सर्वेश्वर का योगदान रहा । दिनमान सदैव साहित्य के प्रति एक उदात्त दृष्टि अपनाता रहा । उसने वादों और प्रतिवादों की बहस के बीच एक औपचारिक स्थिरता दिखाने का प्रयास भी निरंतर किया । दिनमान की यह भूमिका तत्कालीन समय में उसे साहित्यिकों के बीच लोकप्रियता दिलाती रही ।

सर्वेश्वर साहित्य क्षेत्र में चल रही कलावादी एवं जनवादी अति पर क्षुब्ध थे । वे मानते थे कि साहित्य को सीमा में नहीं समग्रता में रखा जाना चाहिए । उन्होंने राजनीतिक खेमेबंदी के आधार पर समीक्षा करने वाले समीक्षकों को भी आड़े हाथों लिया । वे कहते हैं कि “जनवादी समीक्षक के पास कला दृष्टि नहीं है, कलावादी समीक्षक के पास जनवादी दृष्टि नहीं है । एक को जन से प्रयोजन नहीं है, दूसरे को कला से प्रयोजन नहीं है । हमें दोनों के प्रयोजन हैं – कला से भी, जन से भी । दोनों एक-दूसरे के शत्रु नहीं हैं । हम एक समग्र दृष्टि चाहते हैं ।... साहित्य से हम कुछ भी निकाल देने के पक्ष में नहीं हैं । ऐसा कुछ भी जो हमारी अनुभूति का अंग है, जिससे हमारी संवेदना झंकृत होती है । हमारे लिए प्रेम उतना ही अनिवार्य है जितनी क्रांति । दोनों की बुनियाद में अलग-अलग हैं भी नहीं ।... हम मानते हैं और मानते रहेंगे कि कलम लेकर बैठा हुआ आदमी सम्पूर्ण आदमी होता है, उसकी जिम्मेदारी बड़ी होती है । यदि वह किसी लड़ाई को आधा देखता है या आधा लड़ता है वह कलम उठाने का नैतिक आधार खो बैठता है ।... सच्चा लेखक कोई वर्जित क्षेत्र नहीं बनाता ।”16
(चरचे और चरखे पृ. 198)

वस्तुतः सर्वेश्वर साहित्य में किसी प्रकार की अतिवादिता या खेमेंबंदी के खिलाफ थे । वे अभिव्यक्ति के क्षेत्र में कोई अवरोद नहीं चाहते हैं । साहित्य की सहजता, निर्मलता एवं प्रवाह को वे सही अर्थों में देखने और समझने के पक्षधर थे । वे इसीलिए साहित्यकार के लिए, कवि के लिए किसी परिधि या किसी सीमा रेखा को अनुचित मानते हैं । वे साफ तौर पर वर्जित क्षेत्र बताने वाले कलमकारों को रचनात्मक स्तर पर कलम का विश्वासघाती बताते हैं ।

साहित्य में खेमेबंदियों का दौर-दौरा सर्वेश्वर को पसंद न था । वे साहित्यकार पर ठप्पा लगाने के औचित्य पर सवालिया निशान लगाते हैं । वे राजनीति की वन्दना या गणेश परिक्रमा कर कवियों को ललकारते हैं । वे जनवाद का एगमार्क नामक अपने लेख में तीखी राय व्यक्त करते हैं – “जिस रचना या कवि पर जनवाद के गमार्क का ठप्पा लग जाए वही जनसम्पृक्त रचना है ।... दोनों कम्पनियों के अपने-अपने समीक्षक हैं, अपने अपने लेखक हैं पर अब दोनों अपने को मार्क्सवादी भले कहें पर अब साहित्य में मार्क्सवाद नाम की कोई चीज नहीं रह गई है ।”

सर्वेश्वर लिखते हैं – “हम कविता और राजनीति का रिश्ता सुनकर भड़कने वालों में नहीं हैं, न ही ऐसा रिश्ता होने से हमें परहेज है । ल्किन यह रिश्ता मजबूत तो हो । कविता भी दिखे और राजनीति भी ।”16
(चरचे और चरखे पृ. 200)

सर्वेश्वर की सोच है कि राजनीतिक कविता कर्म की ओर प्रेरित करने वाली होनी चाहिए पर ये कविताएं अपने इस कर्म में भी असफल रहीं । सर्वेश्वर साहित्य की इन बेड़े बंदियों पर अपनी टिप्पणियों के नाते काफी धिक्कारे गए पर एक खरे और सच्चे पत्रकार की तरह बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने में वे आगे रहे । वे अपनी लेखनी से समझौतों के खिलाफ थे, और अन्यों से भी ऐसी अपेक्षा रखते थे । वे सदैव चाहते थे कि साहित्यकार को अपने कर्म आचरण से काव्य को तौलना चाहिए । कर्म एवं कविता में विभेद होगा तो ऐसी कविता स्वीकारी न जाएगी । सर्वेश्वर साहित्य और रचनाकार की मुक्ति चाहते हैं ।

सर्वेश्वर एक अच्छे बाल साहित्यकार भी थे । उन्होंने बच्चों के लिए नाटक एवं बाल कविताएं ही नहीं लिखीं, अपने समय की यशस्वी बाल पत्रिका पराग के संपादक भी रहे । पराग के संपादन के काल में उन्होंने पराग में सर्वथा नए प्रयोग किए। अच्छे साहित्यकारों को बाल साहित्य लिखने को प्रेरित किया । उनकी यह चिंता बहुत बड़ी थी कि देश में अच्छा बाल साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। नई पीढ़ी के निर्माण के संबंध में वे बाल साहित्य की जरूरत एवं अर्थवत्ता को गंभीरता से समझने वाले पत्रकार थे । उन्होंने समय-समय पर इस संबंध में अपनी चिंता व्यक्त की । ‘श्रेष्ठ बाल साहित्य की चिंता’ शीर्षक वाले एक लेख में अच्छा साहित्य न लिके जाने के तीन कारण गिनाते हैं – “पहला, हमारा कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं है, न उसकी कोई परिकल्पना ही है । दूसरा हमारी कोई सामाजिक दृष्टि नहीं है । हम कैसा आदमी और कैसा समाज बनाना चाहते हैं, इसकी कोई चिंता नहीं है । इन दोनों कारणों का मूल आधार इस देश की भ्रष्ट राजनीति है और मूल्यविहीन सत्ता-संघर्ष है । तीसरा और प्रमुख कारण आज का बाल लेखक स्वयं है । अपनी संवेदना के क्षेत्र में वह वस्तुतः बच्चों से जुड़ा ही नहीं, न अपनी युग चेतना से । बिना दोनों से जुड़े अच्छा बाल साहित्य नहीं लिखा जा सकता ।”17
(चरचे और चरखे पृ. 189)

सर्वेश्वर की यह चिंता बहुत बड़ी थी कि अच्छे साहित्यकारों का बच्चों से सरोकार क्यों नहीं है । वे उनके लिए साहित्य क्यों नहीं रचते ? वे मानते थे घटिया दर्जे का बाल साहित्यकार कभी बच्चे में मुक्ति की चेतना नहीं जगा सकता । वे बाल साहित्यकारों से अपने बाल साहित्यकारों से अपेक्षा पालते हैं कि वह अपने पाठकों से संवाद बनाए । उनके साथ रच-बस जाए । वे चाहते थे कि बाल साहित्य की भाषा ऐसी हो जिसे बच्चा नर्सरी राइम की तरह गेंद की तरह उछालता फिरे । वह उस पर बोज न डाले, उसके साथ खेलती नजर आए ।

साहित्य के क्षेत्र में पुरस्कारों को लेकर लंबी बहसें एवं विवाद प्रयोजित किए जाते रहे हैं । पुरस्कार की राजनीति एवं राजनीतिक पुरस्कार की इस होड़ में लेखकीय कर्म आहत पड़ा है । गुटबाजी एवं अपनी यशोगाथा कराने में तमाम साहित्यिकों की मण्डली लगी रहती है । सर्वेश्वर पुरस्कारों की राजनीति में मचे अंधेर को बराबर गलत ठहराते थे । वे रचना के सही परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन के पक्षधर थे । उनकी चिंता इस बात को लेकर थी कि खेमेबंदी एवं गुटबाजी के आधार पर पुरस्कारों का सिलसिला बंद हो । इस संदर्भ में उन्होंने दिनमान में लिखी अपनी टिप्पणियों में पुरस्कारों की राजनीति पर प्रहार किए हैं । वे उन सारे संदर्भों को रेखांकित करते हैं जो साहित्य के क्षेत्र में इस राजनीतिक सड़ांध के वाहक हैं । वे साफमानते हैं कि आज हिंदी साहित्य में कोई ऐसा साहित्यकार, समीक्षक, आलोचक नहीं है, जिसकी निष्पक्षता पर लोगों को विश्वास हो । वे पुरस्कार की राजनीति के नाम पर मचे अंधेर पर टिप्पणी करते हैं – “यदि निर्णायक का नाम पता हो तो अटकल लग जादी है पुरस्कार किसे मिलेगा ।” वे कहते हैं साहित्यिक समालोचना में यह पक्षधरता साफ दिखती है । वे हिंदी आलोचकों को आड़े हाथों लेते हुए कहते हैं – “यह पक्षधरता मूल्य-स्तर पर इतनी नहीं होती जितनी परिचय मित्रता, राजनीतिक गुटबाजी (जिसे विचारधारा कहा जाता है) के स्तर पर होती है ।” वे कहते हैं राजनीतिक सत्ता एवं साहित्यिक सत्ता का आचरण एक सा हो गया है ।

सर्वेश्वर ने उपेक्षित साहित्यकारों की पीड़ा को भी अपने स्तंभ में स्थान दिया । दिल्ली की चकाचौंध में वे छोटे स्थान सृजनरत साहित्यिकों को भूले नहीं । ‘पेटियों में बंद साहित्य’ नामक अपने लेख में उन्होंने इटारसी, मध्यप्रदेश के एक कवि स्व. विपिन जोशी (बालकृष्ण जोशी ‘विपिन’) की साहित्यिक कृतियों की उपेक्षा की चर्चा की है । वे बताते हैं मृत्योपरांत स्व. जोशी का संपूर्ण अप्रकाशित साहित्य एक पेटी में उनके एक शुभजिंचक के पास पड़ा है । उनका (स्व. जोशी) का एक कविता संग्रह ‘साधना के स्वर’ भी उनकी मृत्यु के बाद छपकर आ सका । जिसकी भूमिका पं. माखन लाल चतुर्वेदी ने लिखी थी । ऐसे तमाम प्रसंग हैं जब सर्वेश्वर ने साहित्य के क्षेत्र में उपेक्षित पड़े साहित्यकारों, कवियों की उपेक्षा के सवाल को उठाया ।

सर्वेश्वर ने स्तंभ चरचे और चरखे में कई प्रसंगो पर काल्पनिक बातचीत का सहारा लेकरअपनी बात करने की कोशिश की है । जन्मशती पर प्रेमचंद से एक भेंट में वे प्रेमचंद से एक काल्पनिक संवाद के बहाने उनकी जन्मशती पर मचे आयोजनों की श्रंखला को बेमतलब करार देते हैं । वे प्रेमचंद से कहलवाते हैं कि आज के साहित्यकार अपनी जिम्मेवारियों से भाग रहे हैं । इस काल्पनिक साक्षात्कार में प्रेमचंद अपनी पीड़ा जताते हैं – “मैं अन्याय, शोषण से मुक्त, जात-पातहीन, समानता पर आधारित गांव चाहता था, क्योंकि वह पूरे भारतीय समाज का प्रतीक हैं, उसका बदलना है । लेगिन वह दिन प्रतिदिन नाटकीय होता जा रहा है, शोषण और अन्याय विकराल रूप में बढ़ रहे हैं । जात-पात पर पूरी राजनीति की नींव खड़ी है और समानता को लोकतंत्र के नाम पर दफन कर दिया गया है। साहित्य के मूल्यों की चिंता किसे है ? याद रखो, जब पूरे समाज का चरित्र व्यापारी हो जाए तो वह साहित्य को, साहित्यकार को, उसके मूल्यों को व्यापार में लगाता है ।”


सर्वेश्वर साहित्य क्षेत्र में राजनीति के बढ़ते प्रभावों को अपने लेखन में रेखांकित करते हुए एक नकारात्मक प्रवृत्ति बताते रहे । वे सदा मानते रहे कि सत्ता एवं साहित्य का जरूरत से ज्यादा घालमेल उचित नहीं है । इससे साहित्यिक मूल्यों का, साहित्य की मर्यादा का क्षरण होता है। वे साहित्य की स्वायत्तता के पक्षधर थे और चाहते थे कि साहित्यकार मर्यादाओं की सीमा न लांघें । साहित्यिक समारोहों,कला समारोहों का उद्घाटन मंत्रियों से कराने की परंपरा पर उन्होंने कड़ी आपत्तियां दर्ज कराई । उन्होंने माना कि मंत्री यश-लोलुप होता है, पर इसके लिए आयोजकों को तो अपन आयोजन की मर्यादा का विचार करना ही चाहिए । मंत्री शरणम् गच्छामि नामक टिप्पणी में वे लिखते हैं – “दुनिया में कहीं भी मंत्री हर काम में इस तरह नहीं जोड़ा जाता जितना इस देश में जोड़ा जाता है ।... उसके लिए कोई उद्घाटन बड़ा-छोटा नहीं है । सब समान हैं । देश का वास्तविक लोकतंत्र यहीं देखा जा सकता है ।... इस स्तंभकार ने इस बात का अक्सर विरोध किया है कि हर काम के लिए मंत्री का मुंह देखा जाए । लेकिन हर बार उससे कहा गया की पूरे तंत्र की बनावट ऐसी है कि सिवा इसके कोई चारा भी तो नहीं है । जैसा तंत्र होता वैसा मन बनता है । यदि प्रशासन सफाई सले चलता हो और उस मंत्री का अंकुश बिना भेदभाव के रहता हो तो जनता को दूध का दूध, पानी का पानी अलग करना आता है लेकिन जब मंत्री की चाटुकारिता फूलती-फलती हो, उसके अटके हुए काम निकलने हों तो लोग मंत्री के पास न दौडेंगे, ऐसी आशा करना व्यर्थ है।”18
(चरचे और चरखे पृ. 101)

सर्वेश्वर साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों से अपेक्षा पालते हैं कि वे आम आदमी की जंग में शरीक न हों । वे मानते हैं कि साहित्यकार एवं बुद्धिजीवी सिर्फ अपनी बिरादरी पर हो रहे हमलों पर प्रतिक्रिया दर्ज कराते हैं । सामाजिक सवालों पर वेसदैव खामोश रहते हैं । ऐसे में उन पर हो रहे हमलों में आम लोगों का साथ नहीं ले पाते । उनकी लड़ाई में आम जनता नहीं जुड़ पाती । उनकी लड़ाई आम आदमी का साथ लेकर नहीं चल पाती । कानपुर की एक मजदूर हड़ताल को लेकर कथाकार कामतानाथ पर हुए हमले की भर्त्सना करते हे बिरादरी के बाहर निकलो नामक टिप्पणी में सर्वेश्वर कहतेहैं – “यदि यह मान लिया जाए कि लेखक कि पिटाई या उसके प्रति किए गए अन्याय पर बोलना एक प्रतीक है, उसका संबंध एक सामाजिक लड़ाई से है तो अच्छा हो लेखक और बुद्धिजीवी समाज के किसी ऐसे सामान्य जन को प्रतीक बनाकर जिसकेसात अन्याय हुआ हो, लड़ाई छेड़ें और समाज को जागरुक करें तथा सत्ता को सावधान करें ।... आशा की जानी चाहिए कि लेकक और बुद्धिजीवी अपनी बिरादरी पर हुए अन्याय के खिलाफ तो आवाज उठाएंगे ही उन तमाम बेजुबानों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ भी आवाज उठाएंगे जो व्यवस्था के अलोकतंत्रीय आचरण से हर प्रकार की यातना झेल रहे हैं ।”19
(चरचे और चरखे पृ. 146)

सर्वेश्वर साहित्यकारों की विरासत एवं उनके स्मृति चिन्हों को बचाए रखने की बात सदैव करते रहे । अगौना (बस्ती) में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जन्मभूमि का सवाल, लमही (वाराणसी) में प्रेमचंद या गढ़ाकोला (उन्नाव) में निराला की स्मृति को बचाए रखने का प्रश्न हो, वे सदैव दिनमान के पन्नों पर इन संदर्भों पर चिंता जताते रहे । इस संदर्भ में 16 फरवरी 75 के दिनमान में अलिखी अनसुनी अर्जियां शीर्षक लेक में इन स्थलों की शासकीय उपेक्षा को लेकर शासन को आड़े हाथों लिया है । इस क्रम में उन्होंने निराला जी के भतीजे लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का एक मार्मिक खत भी प्रकाशित किया है जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिराजी को संबोदित है । ये सरोकार बताते हैं कि निराला, प्रेमचंद हों या आचार्य शुक्ल, सर्वेश्वर के मन में साहित्यकारों के प्रति गहरा सम्मान भाव था । वे चाहते थे कि यह सम्मान भाव सरकार के मन में भी व्यापे ।

सर्वेश्वर जनमाध्यमों पर साहित्य के दुरुपयोग का बराबर गुस्सा जताते रहे । वे चाहते थे कि काव्य या साहित्य के साथ मीडिया (रेडियो,टीवी) का दुरुपयोग बंद होना चाहिए । उनकी मान्यता थी कि इन माध्यमों में जब साहित्य या कविता की समझ रखने वाले लोग नहीं हैं तो साहित्य इनके भरोसे क्यों छोड़ा जाना चाहिए ? वे ‘ताजे, बासे और सड़े का झोल’ नामक टिप्पणी में आकाशवाणी की भूमिका पर गुस्सा जताते हैं । वे लिखते हैं – “अंग्रेजी का शुद्ध रूप सुनना हो तो बीबीसी सुनिए, हिंदी का भ्रष्ट रूप सुनना हो तो आकाशवाणी सुनिए ।” वे आकाशवाणी द्वारा आयोजित सर्वभाषा कवि सम्मेलन पर अपनी टिप्पणी में लिखते हैं – “सर्वभाषा कवि सम्मेलन में प्रादेशिक भाषा की कविताओं का चुनाह ही ज्यादातर घटिया नहीं था, उनका अनुवाद भई अधिकतर कमजोर था । समझ में नहीं आता मूल कवियों का और उनकी कविताओं के कवि अनुवादकों का चुनाव कैसे किया जाता है । लगता है चुनाव करने वालों का कविता से कोई लेना-देना नहीं होता । वे शायद कविता समझते भी नहीं ।... इस सबसे बेहतर है आकाशवाणी और दूरदर्शन कविता की दुनिया से अलग रहें, उसे अपनी गंदगी में न घसीटें ।”20
(दिनमान 7-13 फरवरी, 82 पृ. 10)

हिंदी में हास्य कविता के पतन से सर्वेश्वर को गहरा मलाल था । वे मानते थे कि हिंदी में स्तरीय हास्य कविताएं नहीं लिखी जा रही हैं । होली पर दूरदर्शन पर आए हास्य कवि सम्मेलन पर अपनी टिप्पणी में वे हिंदी हास्य कविता की स्थिति पर क्षोभ जताते हुए कहते हैं – “वैसे हास्य कविता की दुर्गति हो चुकी है । लोगों को हंसाने की कोशिश में अधिकतर कवि अपने ही सिर पर कूड़े का टोकरा उलट कर खड़े हो जाते हैं – खराब भाषा, खराब पढ़ने का ढंग ही नहीं अपनी बीवियों और सालियों तक के कपड़े उतार लेते हैं । उनकी फजीहत करते हैं । सारे हास्य कवि अपने ऊपर या अपनी बीवी , बच्चों, साली, भाभियों पर ही जोर आजमाते हैं । आए दिन कवि सम्मेलनों कास्तर गिरता जा रहा है। साली और पत्नी से ऊपर हास्य कविता कब उठेगी ?”

सर्वेश्वर लिखते हैं – “कुछ दिन पहले तक कवि सम्मेलनों में अच्छा हास्य सुनने को मिलता था । चोंच, बेढब बनारसी, रमई काका यहाँ तक कि बेधड़क बनारसी तक हास्य की यह धारा निर्मल बहती थी और उसमें अवगाहन से ताजगी आती थी । अब इतना प्रदूषण है कि लगता है कीचड़ में लोट आए हों ।”

सर्वेश्वर हास्य कविता के पूर्वार की तुलना में आज आए क्षरण से व्यथित दिखते हैं । वे भाषआ के भौंडे इस्तेमाल की आलोचना करते हैं । घटिया हास्य कविताओं के इस दौर में अपेक्षा पालते हैं कि कविगण अपने पूर्वापर का विचार करके नया एवं बेहतर रचने की ओर आगे बढ़ेंगे । श्रेष्ठ हास्य को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं “श्रेष्ठ हास्य तो वह है जिसे पढ़कर, सुनकर हंसी आने में कुछ देर लग जाए और ज्यों-ज्यों उस पर सोचा जाए हंसी बढ़ती जाए । स्मृति में बना रहे और हर बार उस की याद नई हंसी से भर दे ।”
(दिनमान, 21-27 मार्च 82, पृ. 10)

इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वेश्वर की पत्रकारिता में साहित्यिक संदर्भों पर लिखी टिप्पणियों का एक अलग महत्व है । वे साहित्य एवं समाज के संदर्भों पर जुड़े सवालों को एक अलग दृष्टि से देखने के अभ्यासी थे । वे साहित्य एवं साहित्यकार की स्वायत्तता को सदा बड़ा एवं अहम सवाल मानते थे । वे उसकी मुक्ति के निरंतर प्रयास करते रहे । वे चाहते थे कि हिंदी पत्रकारिता में साहित्य के सरोकारों पर सदैव संवाद बना रहे । अपनी पत्रकारि. में उन्होंने साहित्यिक संदर्भों को बराबर रेखांकित करते हुए साहित्य को आम लोगों के सरोकारों से जोड़ने की कोशिश की । वे ऐसे किसी भी सृजन के पक्षधर न थे जो वायवीय या आसमानी साहित्य हो । वे साहित्य एवं उसकी चेतना को जनता के संघर्षों एवं उसके जीवन से जोड़कर देखना चाहते थे । उनका मानना था कि कोई भी साहित्य जनांदोलनों, जनाकांक्षाओं से अलग रहकर महत्वपूर्ण नहीं हो सकता ।

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