सर्वेश्वर जी पर युवा पत्रकार संजय द्विवेदी की पुस्तक उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का सम्यक मूल्यांकन करने के ध्येय से प्रेरित है। श्री संजय द्विवेदी की पांडुलिपि को पढ़ते हुए मुझे सातवें दशक का वह दौर याद आ गया जब सर्वेश्वर जी हिंदी के अत्यंत प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘दिनमान’ के स्टाफ मे कवि, नाटककार और पत्रकार के साथ ही प्रखर समाजवादी चिंतक के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। उन दिनों दिनमान में किसी पत्रकारी कि रिपोर्ट का प्रकाशित हो जाना उसके लिए प्रतिष्ठाकारक होता था। दिनमान के संस्थापक-संपादक अज्ञेय जी ने श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें महत्वपूर्ण दायित्व दिया था। अज्ञेय जी के बाद श्री रघुवीर सहाय के संपादन काल में भी सर्वेश्वर जी का पत्रकारीय लेखन दिनमान का विशिष्ट आकर्षण बना रहा। हिंदी के इस तेजस्वी पत्रकार से मुलाकात का सौभाग्य मुझे श्री रघुवीर सहाय के संपादन काल में प्राप्त हुआ था। दिनमान में सर्वेश्वर जी के स्तंभ ‘चरचे और चरखे’ पढ़ने की ललक मेरे जैसे असंख्य पाठकों में रहती थी, जो उसे उत्कृष्ट लेखन का मानदंड मानते थे। उनके लेखन में उनके लेखन से समय की समझ और भाषा के संस्कार विकसित होते थे। लेखन के अलावा उनकी बातचीत में भी लोहिया के मौलिक चिंतन की खनक सुनाई देती थी। सर्वेश्वर जी अपनी साफगोई के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी स्पष्टवादिता और सुलझी हुई समझ प्रभावित करती थी। इसके साथ ही उनका विप्लवी स्वभाव, यथास्थितिवादी पत्रकारिता एवं इतर लेखन में रमें लोगों को कई बार आहत भी करता था।
पत्रकारीय लेखन कैसे अपने समय और समाज की प्रमुख प्रवृत्तियों को दर्ज करने वाला दस्तावेज बन जाता है, इसकी समझ सर्वेश्वर जी को थी। वे बताया करते थे कि किस प्रकार घटना विशेष की रिपोर्टिंग करते समय उससे जुड़े सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक मुद्दों को भी ध्यान में रखना चाहिए। जहां घटना हुई है, उस क्षेत्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की भी जानकारी होनी चाहिए। घटना अथवा घटनाक्रम के यदि कुछ ऐतिहासिक उत्स हैं तो उनका भी संक्षिप्त उल्लेख हो जाना कैसे उपयोगी हो जाता है। उनका मानना था कि इन सारे पहलुओं को संजोकर किया गया पत्रकारीय लेखन दीर्घजीवी हो सकता है। सर्वेश्वर जी की बहुत साफ राय थी कि तथ्यों से छेड़छाड़ किए बना पत्रकारीय लेखन का झुकाव कमजोर और उत्पीड़ित व्यक्ति तथा वर्ग की ओर होना चाहिए। जिसके साथ अन्याय हुआ है उशकी जगह पर अपने आपको खड़ा करके घटनाक्रम का मूल्यांकन करने के पक्षधर थे। ऐसा करते हुए भी भावुकता से बचना चाहिए।
सर्वेश्वर जी ने जिस दौर में साहित्यिक लेखन के साथ ही उतनी ही व्यग्रता के साथ पत्रकारिता की थी तो छपे हुए शब्दों को समाज तथा राजनीति में बड़ी गंभीरता से लिया जाता था। पत्रकारिता मूल्यों को जीती थी। उन मूल्यों से समझौता करके सच पर भ्रम केजाले बुनने वाली प्रायोजित पत्रकारिता तबतक विरल थी, इतनी सघन नहीं थी जितनी आज है। यह कहना सही नहीं होगा कि तब पत्रकारिता पूर्णतः निष्कलंक और पवित्र थी। सत्ता और प्रभुता के सूरजमुखी तब की पत्रकारिता में भी थे, परंतु उनकी एक तो संख्या बहुत कम थी और दूसरे उस समय के पत्रकारों को अपने लेखन की विश्वसनीयता की भी चिंता रहती थी।
जिस आम आदमी को आज राजनीति चुनावी नारे के रूप में उछालती है, उसके साथ सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता के आत्मीय सरोकार थे। सरोकारों में आत्मीयता के साथ ही उसके लिए जूझने की लपट भी कौंधती थी। सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता का युवा और प्रखर पत्रकार संजय द्विवेदी ने सम्यक मूल्यांकन करने में सफल प्रयास किया है। कहीं-कहीं लेखक की निजीश्रद्धा कुछ अधिक मुखर हो जाती है। ऐसा हो जाना स्वाभाविक भी है। सर्वेश्वर जी के लेखन को पढ़ते हुए उनकी जो छवि संजय द्विवेदी के मन में बनी थी उसमें महानता के रंग काफी गहरे रहे होंगे। दूसरा कारण यह हो सकता है कि सर्वेश्वर जी भी पूर्वी उत्तर प्रदेस के उसी बस्ती नगर से थे जहां संजय द्विवेदी का जन्म और लालन-पालन हुआ। संभव है सर्वेश्वर जी पर एक पूरी पुस्तक लिखने के लिए माटी का यही रिश्ता सर्वाधिक प्रेरक रहा हो।
संजय द्विवेदी ने सर्वेश्वर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर यथासंभव अधिक से अधिक जानकारी संकलित की है। उनकेलेखन के उद्धरणों के माध्यम से उनके व्यक्तित्व की विकास यात्राको लेखक ने बड़ी संजीदगी के साथ रेखांकित किया है। सर्वेश्वर जी और उनके लेखन को समझने के साथ ही यह पुस्तक हिंदी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि तथा उसके समसामयिक परिदृश्य का भी विवेचन करती है। यह पुस्तक संजय द्विवेदी के लेखन में आ रही प्रौढ़ता और भाषा-शैली में आए निखार की भी साक्षी है। उनकी पूर्व प्रकाशित पुस्तकों ‘इस सूचना समर में’ और ‘मत पूछ क्या-क्या हुआ’ को मैंने पढ़ा है, इसलिए विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि संजय द्विवेदी के लेखन में जो परिष्कार आ रहा है वह संभावनाओं की कंदील की लौ को ऊँचा कर रहा है। पत्रकारिता को ही लें तो स्व. सुरेन्द्र प्रताप सिंह पर केंद्रित पुस्तक ‘यादें – सुरेन्द्र प्रताप सिंह’ के संपादन में कहीं-कहीं जिस जल्दबाजी की झलक दिख जाती थी वह भरपूर श्रम से तैयार की गई इस पुस्तक में नहीं है। संजय द्विवेदी से दीर्घजीवी लेखन की अपेक्षा पूरे भरोसे के साथ की जा सकती है।
0 रमेश नैयर
152-ए, समता कॉलोनी, रायपुर
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