अपनी बात




हिन्दी पत्रकारिता आज संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है । ‘मिशन’ और ‘प्रोफेशन’ की बहस थमी नहीं है और अखबारों विज्ञापन, मालिक एवं व्यवसायगत दबाव गहरे हुए हैं । साथ ही उसकी विश्वसनीयता पर भी सवलिया निशान उठने लगे हैं । ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम उन मनीषी पत्रकारों को याद करें जिनका जीवन और लेखन उन्हीं कलमकारों की परम्परा का एक नाम है । सर्वेश्वर के मन में तमाम बुनियादी सवालों पर जो बेचैनी और तल्खी है उसके चलते वे हमारी नई पत्रकार-पीढ़ी के सामने एक ज्योतिपुंज के रूप में उभरते हैं । क्योंकि सर्वेश्वर की पत्रकारिता सत्ता के पायदानों से नहीं गरीबों के दुख, गांव की चौपाल एवं महानगरों में जीवन का संत्रास भोग रहे लोगों से शुरू हो ती है । सर्वेश्वर की पत्रकारिता वस्तुतः जनधर्मी पत्रकारिता है, जो सत्ता और पत्रकारिता की दोस्ती नहीं चाहती ।

सर्वेश्वर की पत्रकारिता में निरंतर एक ‘रचनात्मक उत्तेजना’ की तलाश करते रहे तथा अपने निजी अनुभवों व संत्रासों से उन्होंने अपनी लेखनी को धारदार बनाया । ऐसे जनप्रतिबद्ध पत्रकार पर कार्य करने की प्रेरणा मुझे अपने पिता श्रद्धेय डॉ. परमात्मा नाथ द्विवेदी से मिली । वे सर्वेश्वर जी के मित्र एवं प्रशंसक हैं । उनके द्वारा सर्वेश्वर जी के रचनाधर्मी व्यक्तित्व की चर्चाएं सुनकर मेरे मन में भी सर्वेश्वर को समझने की ललक पैदा हुई । बचपन के दिनों में पराग का पाठक होने के नाते सर्वेश्वर जी का नाम मेरे जेहन में पहले से मौजूद था । ऐसे युगप्रवर्तक पत्रकार के बारे में कार्य आरंभ करते हुए मुझे कार्य की जटिलता का अहसास हुआ पर इस कार्य में उतरने पर एक आनंद का अनुभव हुआ और लगा कि सर्वेश्वर पराए नहीं अपने बीच के एक इन्सान हैं जो अपनी लगन एवं प्रतिभा से ऊँचाइयों को छू लेते हैं । व्यक्तिपूजा की परंपरा के वातावरण में हम लोगों को तत्काल भगवान का दर्जा देकर उनकी पूजा-अर्चना प्रारंभ कर, उन्हें अपने ले दूर कर देते हैं जबकि इन आदर्शों की अर्थवत्ता इसमें है कि हम उनकी समूची विकास यात्रा एवं संघर्षों से प्रेरणा लें और यह महसूसें कि कैसे एक साधारण व्यक्ति अपनी मेहनत और लगन से ऊँचाइयों को प्राप्त करता है । सर्वेश्वर की जीवन यात्रा इस संदर्भ में युवा पीढ़ी के लिए सबसे बड़ा उदाहरण बन सकती है ।

हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाम अपरिचित नहीं है । हालांकि एक कवि के रूप में वे ज्यादा जाने-पहचाने गए, इसलिए उनके पत्रकार व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन न हो पाया । साहित्य के क्षेत्र में उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व पर सहजता से लोगों की दृष्टि ही नहीं जाती । वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे – वे कवि, नाटककार, कथाकार, बाल साहित्यकार, चिंतक एवं पत्रकार सब कुछ थे । उनके योगदान को किसी क्षेत्र में कम करके आंका नहीं जा सकता । पत्रकार के रूप में उनकी सामाजिक चिंताएं बहुत व्यापक थीं । एक पत्रकार के रू में उनका लेखन जहां तत्कालीन दौर की कड़ी आलोचना है तो दूसरी ओर सही मायनों में विकसित, मानवीय समाज-रचना की आकांक्षा से परिपूर्ण है । ऐसे मनीषी पत्रकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अब तक मूल्यांकन न किया जाना दुखद है । इस अकिंचन प्रयास के माध्यम से पत्रकार सर्वेश्वर को समझने की कोशिश की गई है। क्योंकि इसके बिना पत्रकार सर्वेश्वर के व्यक्तित्व को समझ पाना सहज नहीं है।

पत्रकार सर्वेश्वर पत्रकारिता के क्षेत्र में भी एक कवि-साहित्यकार के रूप में ही प्रतिष्ठित रहे । दिनमान जैसी उच्च कोटि की पत्रिका के कुशल सम्पादन व प्रकाशन के बावजूद उन्हें पत्रकार के रूप में मिली कम या सीमित चर्चा आश्चर्यजनक है । ऐसा ही कुछ दिनमान के संस्थाप-सम्पादक अज्ञेय, सम्पादक रघुवीर सहाय एवं श्रीकांत वर्मा के साथ भी हुआ । इस सबके मूल में सबसे बड़ा कारण यही रहा कि ये लोग साहित्य जगत के एक बड़े और समादृत नाम बन जाने के पश्चात पत्रकारिता में आए । सो उनके व्यक्तित्व पर उनका साहित्यकार हावी रहा पर सर्वेश्वर के लेखन में जनता से उनका जुड़ाव, सहज भाषा का प्रवाह एक पत्रकार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को बनाता और कायम करता है । इसके बावजूद सर्वेश्वर का पत्रकार व्यक्तित्व समीक्षकों की दृष्टि में न आया । पत्रकारिता के क्षेत्र में आए संकट व संक्रमण में सर्वेश्वर की प्रासंगिकता बहुत बढ़ जाती है । आज वे जिस तेजस्विता के एवं खुलेपन से विसंगतियों एवं विद्रूपताओं पर हल्ला बोलते हैं, सत्ता प्रतिष्ठानों पर बैठे लोगों को खरी-खोटी सुनाते हैं – यह सारा कुछ आज की नई पत्रकार पीढ़ी के लिए मशाल की तरह है जो लड़ने और डटे रहने की क्षमता देती है । सर्वेश्वर का जीवन संघर्ष, जीवन की विसंगतियों से लड़ते नौजवान की एक कस्बे से होकर देश की राजधानी में स्थान बनाने की कथा है । इस प्रयास के माध्यम से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के पत्रकारीय व्यक्तित्व एवं कृतित्व को प्रथम बार तटस्थ भाव से परखने का प्रयत्न किया गया है ।
मेरा पूज्य गूरुवर डॉ. श्रीकांत सिंह के कुशल मार्गदर्शन और प्रेरणा से मेरा यह महत्वपूर्ण कार्य संभव हो सका है । यह पुस्तक पूरे विनय के साथ उन्हें समर्पित है ।
उम्मीद है यह किताब पत्रकार बिरादरी के साथ-साथ हिंदी प्रेमियों का भी स्नेह पाएगी ।


0संजय द्विवेदी, 20 मई, 2004

1 comment:

ePandit said...

संजय जी आप काफी समय से हिन्दी में ब्लॉग लिख रहे हैं लेकिन आपके विषय में ज्ञात नहीं हुआअ। मेरे विचार से आप अभी नेट पर अन्य हिन्दी प्रयोगकर्ताओं के संपर्क में नहीं हैं। नेट पर लगभग ४०० हिन्दी ब्लॉगरों का समूह है जिसमें पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की खासी तादाद है। हिन्दी ब्लॉगजगत में आइए। वहाँ आपकी सभी हिन्दी लिखने वालों से मुलाकात होगी। हमारी कुछ सामुदायिक साइटें हैं जिनके द्वारा हम सब आपसी संपर्क में रहते हैं। आपसे अनुरोध है कि आप इनमें शामिल हों। इससे हमारा परिवार बढ़ने के अतिरिक्त आपको भी नियमित पाठक मिलेंगे। मैं आपको हिन्दी जगत की कुछ साइटों के बारे में बताता हूँ।

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श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'