सर्वेश्वर की पत्रकारिता - विकास के आयाम


(क) आरंभिक

सर्वेश्वर वस्तुतः बड़े साहित्यकार थे या पत्रकार, यह सवाल बड़ा जटिल है पर यह सच है कि वे रोशनी के पक्ष में थे, एक जिंदादिल इन्सान थे । पत्रकारिता को उन्होंने अपने व्यवसाय के रूप में अपनाया था । उन्हें लगता था कि वे इस क्षेत्र में ज्यादा जवाबदेही एवं स्वतंत्रता के साथ कार्य कर पाएंगे । उनके मन में भारतीय ग्रामीण समाज के प्रति एकगहरी पीड़ा अपनी पूरी संवेदना के साथ उपस्थित थी । उनके पत्रकारीय ल खन में यह संवेदना पसरी दिखती है । वे चाहते तो पत्रकारिता के तमाम सरमाएदारों की तह अपनी ऊँची राजनीतिक पहुंच का इस्तेमाल कर व्यवस्था एवं सत्ता की सुविधाओं का व्यापक लाभ उठा सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया । वे पूरी जिंदादिली एवं तनदेही के साथ अपने पाठकों के साथ संवाद करते रहे । सत्ता के पायदानों पर जाना एवं शरणागत होना उन्होंने सीखा ही नहीं था । जीवन के संघर्षों एवं कटु अनुभवों ने उन्हें एक ऐसी सीख दी थी, जो समाजवादी-लोहियावादी सोच में पककर वैचारिकता को प्राप्त हुई थी । झुकना उन्होंने सीखा न था, डटे रहना उनका स्वभावा था ।

आरंभिक दिनों में वे प्रयाग के साहित्यिक-सास्कृतिक वातावरण से खासे प्रभावित थे । इलाहाबाद की संस्था परिमल से जुड़कर उन्हें तमाम साहित्यकारों एवं पत्रकारों के निकट आने का मौका मिला । सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ इनमें एक थे । जो बाद में नवभारत टाइम्स एवं दिनमान के यशस्वी संपादक बने । पत्रकारिता की शुरुआत पर नजर डालें तो रेडियो में प्रवेश के साथ वे (सर्वेश्वर) पत्रकारिता में कदम रख चुके थे। आल इण्डिया रेडियो के सहायक समचार संपादक (हिंदी समाचार विभाग) में उनकी नियुक्ति पत्रकारिता में उनका प्रवेश कही जा सकती है । इन अर्थों में उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पहले प्रवेश किया । उन दिनों रेडियो में बौद्धिक एवं साहित्यकार किस्म के लोगों का जमावड़ा था । सर्वेश्वर रेडियो की नौकरी में दिल्ली, भोपाल, इन्दौर एवं लखनऊ में कार्यरत रहे । पर शायद सरकारी माध्यम की यह नौकरी उनके स्वतंत्र मन को रास न आई और वे अलग विकल्पों की पर गौर करने लगे । इस बीच साहित्य में तो उनका खासा नाम चल चुका था । तीसरा सप्तक के कवि के रूप में उनकी राष्ट्रीय पहचान बन चुकी थी, पर पत्रकार के रूप में उनकी संभावनाएं अभी शेष थीं ।

दिनमान में प्रवेश

टाइम्स आफ इण्डिया प्रकाशन ने 1964 में एक अनूठी साप्ताहिक समाचार पत्रिका का प्रकाशन दिल्ली से आरंभ किया । वरिष्ठ पत्रकार अज्ञेय पत्रिका के संपादक बनाए गए । अज्ञेय जी की सर्वेश्वर जी पर बड़ी कृपा थी । साहित्यिक क्षेत्र में सर्वेश्वर की प्रतिभा एवं लेखन शक्ति के अज्ञेय जी कायल थे । वे चाहते थे कि सर्वेश्वर जी की इस प्रतिभा का लाभ दिनमान अपना साहसिक प्रयोगों, रिपोर्टों के चलते पत्रकारिता जगत में समादृत हुआ । अच्ची संपादकीय टीम एवं लेखन कौशल ने दिनमान को अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रिकाओं की कोटि में लाकर खड़ा कर दिया । एक पत्रकार के रूप में सर्वेश्वर की पहचान एवं प्रतिष्ठा दिनमान से बनी । अज्ञेय, रघुवीर सहाय, कन्हैयालाल नंदन, श्रीकांत वर्मा, योगराज थानी, सुषमा जगमोहन, जितेन्द्र गुप्त, प्रयाग शुक्ल, बनवारी, आलोक मेहता, विनोद भारद्वाज, जवाहर लाल कौल जैसे योग्य सहयोगी पत्रकारों की टोली ने सर्वेश्वर को एक रचनात्मक माहौल दिया । इन पत्रकारों की सजग एवं पैनी दृष्टि एवं कुशल संपादन क्षमता ने दिनमान को हिंदी पत्रकारिता का गौरव बना दिया । दिनमान के माध्यम से सर्वेश्वर की आवाज, दिनमान के लाखों पाठकों की आवाज बन गई । 1969 से दिनमान में उनके द्वारा लिखे जाने वाले बहुचर्चित स्तंभ चरचे और चरखे को अपार लोकप्रियता मिली । यह स्तंभ सर्वेश्वर की सामाजिक चिंताओं का जीवंत दस्तावेज है ।

दिनमान सर्वेश्वर की उपस्थिति एक संपादकीय सहकर्मी की उपस्थिति मात्र नहीं है । एक पूंजीवादी संस्थान का पत्र होने के बावजूद दिनमान का जनधर्मी रुझान बताता था – कि सर्वेश्वर वहां सिर्फ नौकरी नहीं कर रहे थे । लोहियावादी विचारों की प्रेरणा से लैस सर्वेश्वर ने दिनमान को भाषा का एक नया संस्कार एवं मुहावरा दिया । 1964 से दिनमान से जुड़ने के वे 1982 तक दिनमान परिवार के सदस्य रहे । अपनी लंबी पत्रकारीय यात्रा में उन्होंनो कभी समझौतों वं समर्पण को बर्दाश्त न किया । उनकी लेखनी की तल्खी कभी कम न हो पाई । तब का दिनमान, उनकी रिपोर्टिंग एवं लेखन न केवल सर्वेश्वर की पत्रकारिता की तेस्विता का प्रमाण है । वरन वह आज की एक बड़ी पत्रकार पीढ़ी के लिए पत्रकारिता का स्कूल रहा है । सर्वेश्वर की दमदार उपस्थिति के कुशल संपादकों की जनधर्मी भूमिका के चलते न सिर्फ पाठकों तक सूचनाएं पहुंची वरन वे जागृत हुए एव उनमें चीजों को समझने एवं उस पर प्रतिक्रिया करने का साहस भी आया । कला, संस्कृति से लेकर गांवों, कस्बों में चल रही गतिविधियों का दिनमान गवाह बना और हर प्रसंग पर उसकी बेबाकी ने जनता का प्रबोधन किया।

मामला पुलिस द्वारा जनता के उत्पीड़न का हो याबाढ़, अकाल, बलात्कार, या विभीषिका का दिनमान ने हर खबर के साथ सामाजिक सरोकारों को जोड़ा । सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव ही सर्वेश्वर की पत्रकारिता का मूल स्वर है । दिनमान में सर्वेश्वर न् अपनी टिप्पणियों के द्वारा घटनाओं के विश्लेषण एवं व्याख्या का एक नया दौर प्रारंभ किया, जहाँ मात्र सनसनी या जुगुप्सा फैलाने का भाव नहीं था । ना हीमात्र जानकारी परोस देने क भावना थी । पाठक की विचार यात्रा को झकझोरने एवं उसे सत्य का पक्षधर बनाने की भूमिका इसमें निहित थी। आजादी के बाद गांवों की ठहरी हुई विकास यात्रा को इसी दौर में नए तरीके से समझने व देखने का प्रयास हुआ । इन अर्थों में सर्वेश्वर ने पत्रकारिता के प्रचलित मानदण्डों, मान्यताओं से अलग हटकर नए एवं प्रासंगिक अर्थ देने की कोशिश की । उनके समय में दिनमान में एक बड़ा काम और हुआ । देश के दूर-दराज अंचलों में चल रहे व्यवस्था एवं शोषण के खिलाफ आन्दोलनों व प्रतिरोधों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार व मान्यता मिली । वे न सिर्फ ऐसे प्रतिरोधों की खबरें छापने के पक्ष में ते, वरन इनके सामाजिक, रर्थिक एवं राजनीतिक कारणों पर भी विचार से विवेचना के पक्ष में थे व सत्य को समग्रता में देखने एवं स्वीकारने के हिमायती थे । वे साफ मानते थे कि पत्रकारिता एक पवित्र धर्म है, और वे इस धर्म का ताजिंदगी निर्वाह करते रहे । उन्होंने दिनमान में अपने लेखन के माध्यम से आम आदमी की पीड़ा एवं संत्रासों को स्वर देने का प्रयास किया । लिजलिजेपन और दब्बूपन के खिलाफ थे । वे घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी या गवाह बन कर रह जाने वालों में नहीं वरन अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करने में अपनी भूमिका की सार्थकता पाते थे । इन अर्थों में वे निहायत सरोकारी जीव थे । वस्तुतः साहित्कार एवं कवि होने के बावजूद जब वे पत्रकारिता में आए तो वे किसी से कमतर साबित न हुए । अपने स्पष्ट वैचारिक आग्रहों एवं जनधर्मी रुझान के चलते उनकी पत्रकारिता से निःसृत एक-एक शब्द पत्रकार जगत के लिए पाथेय बन गया ।

प्रख्यात पत्रकार स्व. श्रीकांत वर्मा का कहना है कि “मैं जहाँ तक उन्हें समझ पाया, सर्वेश्वर एक बेजोड़ इन्सान थे, एक ऐसी गहरी मानवीयता उनके भीतर थी जो आज खो गई है । वह एक छोटे से कस्बे से दिल्ली आए थे लेकिन वे यह बात कभी न भूल पाए कि वे मूलतः कस्बे के ही आदमी हैं। दिल्ली को उन्होंने कभी स्वीकार न किया और अपनी जड़ों को कभी इंकार न किया ।”1 सर्वेश्वर के साथ 12 वर्ष दिनमान की टीम में कार्य चुके श्रीकांत जी की यह टिप्पणी उनके बारे में काफी कुछ बयान करती है । सर्वेश्वर की मृत्यु पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए दिनमान के पूर्व संपादक एवं कवि रघुवीर सहाय ने कहा था – “सर्वेश्वर के बारे में इससे बड़ा वक्तव्य और कोई नहीं दिया जा सकता कि वे रोशनी के पक्ष में थे । उन्होंने कभी नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं अपनाया”2 अपने वक्तव्य में सर्वेश्वर के साथ प्रयाग तथा दिनमान में एक सहयोगी-मित्र के बतौर बिताए समय पर रघुवीर सहाय की टिप्पणी थी - “सन 1951 से सर्वेश्वर के साथ भीतरी, बाहरी, सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्यों से पैदा, न जाने कितनी जरूरतों से मैं जुड़ा रहा हूँ । इन सबमें कभी झगड़ा करके, कभी दोस्ती में उन्होंने साथ एवं संवाद बनाए रखा और यह संवाद आज बहुत कम लोगों से संभव रह गया है ।”3 डॉ. नामवर सिंह मानते हैं कि “इतना ज्यादा ह्यूमन कन्सर्न सर्वेश्वर में था, उतना कम लोगों में होता है ।”4

यह ‘ह्युमन कन्सर्न’ सर्वेश्वर की पत्रकारिता के प्रत्येक शब्द-शब्द पर बिखरा पड़ा है । उनकी पत्रकारिता का प्रत्येक शब्द उन्हें ज्यादा मानवीय, सदाशय एवं आत्मीय बनाता है ।

पराग के संपादक

अपने समय की सुप्रसिद्ध बाल पत्रिका पराग के वे नवम्बर 1982 में संपादक बने तथा मृत्युपर्यन्त इस पद पर बने रहे । सर्वेश्वर ने बाल पत्रिका पराग को एक नया शिल्प एवं शैली दी । पराग का संपादकीय स्तंभ थोड़ा कहा बहुत समझना के माध्यम से अपने बाल पाठकों से सीधी एवं सरल भाषा में संवाद का अभ्यास डाला । पराग को अपने समय की बाल पत्रिकाओं के बीच एक खास जगह दिलाने का उन्होंने हरसंभव प्रयास किया । वे एक अच्छे बाल साहित्यकार भी थे । बच्चों के लिए दो कविता संग्रह महंगू की टाई एवं बबूता का जूता लिखकर के बाल साहित्य के क्षेत्र में अपनी पहचान बना चुके थे । लाख की नाक तथा भों-भों खों-खों नाम से उन्होंने दो बाल नाटक भीलिखे थे । ऐसे में उनमें बाल साहित्य की समझ एवं संवेदना पहले सेही उपस्थित थी । वे इसी संवेदनात्मक बोध के चलते पराग के सम्पादक साबित हुए । बच्चों से संवाद में उन्हें महारत हासिल थी। उनके समय में पराग की बिक्री काफी बढ़ी । उन्होंने देश के बड़े साहित्यकारों से भी पराग के लिए लिखवाया । इस प्रकार हिंदी बाल पत्रिका पराग को उन्होंने हिंदी बाल पत्रकारिता के इतिहास में प्रमुख नाम बना दिया । राजनीतिक पत्रकारिता से बाल पत्रकारिता में प्रवेश के बावजूद उन्होंने यह अहसास न होने दिया कि वे इस क्षेत्र में अनाड़ी हैं । उन्होंने वहाँ भी अपनी प्रतिभा एवं कौशल का लोहा मनवाया ।

पराग में सर्वेश्वर के संपादन काल में जहाँ अच्छे बाल एकांकी छपे, धारावाहिक बाल उपन्यास छपे वहीं तमाम बड़ी विभूतियों के जीवन स जुड़े कथा-प्रसंगों की भी चर्चा रही । इस दौर में पराग के लिए आनंद प्रकाश जैन, दिविक रमेश, डॉ. श्री प्रसाद, बाला दुबे, डॉ. राष्ट्रबंधु, चन्द्रपाल सिंह यादव मयंक, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, शंकर सुल्तानपुरी, नारायण लाल परमार, हरिकृष्ण देलंग, इंदिरा परमार, मनोहर वर्मा, चक्रधर नलिन, बाबूलाल शर्मा प्रेम, दामोदर अग्रवाल, डॉ. शएरजंग गर्ग, डॉ. सरोजनी प्रीतम, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, भगवती प्रसाद द्विवेदी, कमल सौगानी, डॉ. हरीश निगम, रमेशचंद्र पंत, प्रकाश मनु, विष्णु प्रभाकर आदि लेखकों ने काफी बेहतर लिखा । सर्वेश्वर जी के साथ उनके सहयोगी के रूप में लक्ष्मीचंद्र गुप्त कार्यरत थे ।

निष्कर्ष –

सच कहें तो सर्वेश्वर ने जी वीका को अभिव्यक्ति का माध्यम बहुत कौशल से बनाया । रोटी और सुविधाओं के लिए उन्होंने न तो कहीं नाक रगड़ी और न ही समझौते किए । एक निजी स्वायत्तता का घेरा उनके रचनाधर्मी संकल्प को सदैव पवित्र करता था, जिसके भीतर घुसने की हिम्मत अनधिकारी व्यक्तयों में कहाँ थी ? सर्वेश्वर बड़े पत्रकार थे, सत्ता के केन्द्र में थे, इसके बावजूद उनकी स्वायत्तता बची रह सकी तो इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि उन्होंने अपने आप को भुनाने की कोशिश कभी नहीं की । सर्वेश्वर की पत्रकारिता अपने आप में एक आन्दोलन थी । उनका लिखा पढ़कर चुप रह जाना असंभव था । उनकी लेखनी तिलमिलाने वाली चोट करती थी । भीड़ का साधारण आदमी, रिक्शा चालक, झुग्गी-झोंपड़ी वाला, झल्ली उठाने वाला मजदूर, निरीह औरतें, घटिया राजनीति करने वाले नेता, साहित्यकार, झांसा पट्टी वाले संस्कृति के ठेकेदार सभी सर्वेश्वर की कलम की जद में थे । सर्वेश्वर की आँख चौराहे पर लगे कैमरे की तरह समाज के भीतर हो रहे हर यातायात का विवरण दर्ज करती थी। देश के किसी कोने पर होने वाले अन्याय पर सबसे पहले सर्वेश्वर की कलम बोलती थी । वह जमाने के फैशन के लिए मजदूरों एवं किसानों के दुख-दर्द की कथा न लिखते थे । सर्वेश्वर उसे जीते थे और जब लिखते थे तो अपने आंसुओं से धोकर उसे उजला कर देते थे । जागरण के हर अभियान में सर्वेश्वर की कलम आगे चलने का जोखिम उठाती थी, पर उसका श्रेय न लेती थी । उनकी कलम अपने आप में एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, स्वायत्त साम्राज्य थी । वह आज के युग में विरल है और इसी कारण अब हर कलम की क मत जगजाहिर है । सर्वेश्वर पत्रकारिता के क्षेत्र में अज्ञेय की प्रेरणा से आए, पर उनके लेखन पर अज्ञेय के व्यक्तित्व की छाया कभी न दिखी । वे स्वभाव से विद्रोही एवं संघर्षचेता थे । उनकी तल्ख एवं तेजाबी टिप्पणियां उनकी लेखनी को धारदार बनाती थी । वे सच्चे अर्थों में कभी प्रोफेशनल न ब पाए । आम आदमी का दर्द, उसकी आदमियत को जिंदा रखने का सपना ताजिंदगी उनकी आंखों में तैरता रहा । वे इन सपनों के साथ अपने-आप को पाते थे । गरीबी, संत्रास एवं संघर्ष से खड़ी हुई अपनी जिंदगी को वे भूल न पाते थे । अपने प्रोफेशन के साथ मिशन का भाव उन्होंने कभी न चुकने दिया । दिल्ली की बेगानी दुनिया एवं रपटीली सड़कें उनका इन्सान न मार सकीं । उनकी संवेदनात्मक ऊर्जा का क्षरण न कर सकीं । वे बार बार आम आदमी की आंखों में पल रहे सपनों को देखकर स्पंदित होते थे । इसलिए मेलों के शहर दिल्ली मे जब कभी रचना एवं सृजन या विकास की पीड़ा लेकर यथास्थितिवाद की प्रतिरोदी ताकतें एकत्र होती थीं तो राष्ट्रीय मीडिया उन्हें नजरअंदाज भले कर दे, सर्वेश्वर की पैनी निगाह उन्हें ढूंढ निकलाती थीं । उनके अपने स्तंभ चरचे और चरखे में उन्हें जगर मिलती थी । ऐसा औदार्य एवं पत्रकारीय समर्पण जहाँ राजनीतिबाजों की जुगाली और हलचलों की दर्शक मात्र थी, सर्वेश्वर की कलम साधारण घटना प्रसंगों से बेहतर तलाश लेती थी । समय-समय पर लिखी गई उनकी टिप्पणियां आज पत्रकारिता जगत में आने वाले नए पत्रकारों के लिए ऊर्जा का अजस्त्र स्रोत बन गई हैं । जो बताती हैं कि पत्रकारिता के मूल्य एवं उसकी जवाबदारी बनाने एवं बचाए रखने वाले पत्रकारों की पीढ़ी में सर्वेश्वर सबसे चमकदार हस्ताक्षर हैं ।

सन्दर्भ –

1. दिनमान (2-8 अक्टूबर 1983) – एक और सूरज डूब गया – धीरेन्द्र अस्थाना (पृ. 24)
2. दिनमान (2-8 अक्टूबर 1983) – सर्वेश्वर रोशनी के पक्ष में थे – रघुवीर सहाय (पृ. 21)
3. वही (पृ. 24)
4. दिनमान (2-8 अक्टूबर 1983) – एक और सूरज डूब गया (पृ. 25)

2 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सक्सेना जी के बारे में पढ कर प्रसन्नता हुई। बधाई स्वीकारें। मैं भी बाल साहित्य से जुडा हुआ हूं और थोडा बहुत लेखन कार्य भी करता हूं। ( http://z-a-r.blogspot.com ) इसीलिए बाल साहित्य से जुडा फीचर देख कर विशेष प्रसन्न्ता हो रही है। आशा है आगे भी ऐसे फीचर पढने को मिलते रहेंगे।

Unknown said...

Sarveswar ji ko ek sashakt patrikar ke rup me janlar bahut achha laga.
Mai unke bare me shodh kar raha hu kripya unke parichay samagri kaha milegi, batane ki kripa karen
8240971812