भाषा और उसकी संरचना का संदर्भ


वर्तमान पत्रकारिता में भाषा का सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो उठा है । अखबार और उसकी भाषा का जनमानस पर व्यापक प्रभाव डालते हैं । अखबार की भाषा अपेक्षाकृत स्थायी होती है तथा उसका अपना भाषिक इतिहास भी बनता है । ताजा दौर में भाषा के स्वरुप को प्रभावित, परिवर्तित और विकसित करने मे समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है ।

समाचार पत्र और पत्रिकाएं आज समाज के सभी वर्गों के बीच रुचि स पढ़े जाते हैं । वे जीवन के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक, खेलकूद एवं चलचित्र आदि सभी पक्षों की प्रस्तुति करते हैं । इसलिए एक औसत भारतीय की समझ एवं परिवार के समस्त सदस्यों की रुचि के विषय एवं उनकी समझ में आने वाली भाषा का विचार यहाँ निरंतर चलता रहा है । भाषा के सवाल पर अखबार को सदैव अपने पाठकों की बौद्धिक क्षमता और अवधारणा शक्ति के अनुरूप बनने के प्रयास करना होता है । ऐसे अनेक कारणों से उसकी भाषा में व्यापकता, सर्वजन सुबोधता, प्रयोगधर्मिता और लचीलापन होता है, जो उसे एक विशिष्टता प्रदान करता है । भाषा शास्त्रियों ने इस तथ्य की ओर बराबर संकेत किया है कि प्रयोग क्षेत्रों के अनुसार भाषा एक विशिष्ट स्वरूप धारण कर लेती है । इसी प्रकार उसकी शब्दावली एवं भाषायिक समझ का विकास होता चला जाता है । पत्रकारिता की भाषा की यही स्थिति है । हालांकि पत्रकारिता के भाषायी स्वरूप एवं उसके जन सरोकारों को लेकर बराबर बहस चलती रही है पर वह आज तक किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंची है।

यहां यह बहुत महत्वपूर्ण है कि पत्रकारिता की भाषा कोई वायवीय आ आकाशीय भाषा नहीं है न ही व विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की तरह अलग है । उसका संबंध तो सीधा जनता एवं उसके सरोकारों से है । पत्रकारिता की भाषा जीवन की भाषा से अलग नहीं है, वह जिंदगी के साथ हंसती, खेलती, बतियाती हुई चलने वाली भाषा है । समाचार पत्रों की भाषा न तो सर्वथा और शुद्ध साहित्यिक है न ही आम-फहम । वह दोनों के बीच की एक चीज है जो वस्तुतः लोकव्यवहार से प्रभावित होती है। समाचार पत्रों की भाषा के सवाल पर डेनियल डेफो ने एक बार कहा था – “यदि कोई मुझसे पूछे कि भाषा का सर्वोत्तम रूप क्या हो, तो मैं कहूँगा कि वह भाषा, जिसे सामान्य वर्ग के भिन्न-भिन्न क्षमता वाले पांच सौ व्यक्ति (मूर्खों एवं पागलों को छोड़कर) अच्छी तरह समझ सकें ।”34

दिनमान और उसकी भाषा

अनेक समाचार पत्रों में प्रयोगशीलता की प्रवृत्ति देखी जा सकती है । तमाम दैनिक समाचार पत्रों में यह प्रवृत्ति है, किन्तु बिना सूक्ष्म अध्ययन के उसे स्पष्ट समझ पाना असंभव है । साप्ताहिक, मासिक पत्रों पर यह प्रवृत्ति साफ तौर पर देखी-पढ़ी जा सकती है । हिंदी के साप्ताहिकों में दिनमान इसका उदाहरण रहा है । उसकी प्रयोगशीलता साफ तौर पर उभर कर सामने आती है। डॉ. सुरेश चंद्र शर्मा का मानना है कि “मेरे मत में, हिंदी की समस्त पत्र-पत्रिकाओं में भाषा के प्रति सर्वाधिक सचेत दृष्टि दिनमान में पाई जाती है । हिंदी के स्वरूप-विकास के लिए अकेले दिनमान ने जितना काम किया है, उतना संभवतः किसी अन्य पत्र ने नहीं ।” वे लिखते हैं “भाषा के प्रयोगों के संबंध में उसका अपना दृष्टिकोण अन्य सभी पत्रों से विलक्षण प्रतीत होता है । भाषा की एकरूपता जो अन्य पत्रों में अनुपलब्ध है, दिनमान में देखी जा सकती है । इसका श्रेय इसके संस्थापक-संपादक श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय को है ।”35

सर्वेश्वर और उनकी भाषा

दिनमान जब 1964 में दिल्ली से आरंभ हुआ तो उसके संस्थापक-संपादक अज्ञेय के मन में एक बेहतर पत्रिका निकालने का सपना पल रहा था। इसके लिए उन्होंने हिंदी साहित्य में सक्रिय एवं जुझारू लोगों को दिनमान से जोड़ना चाहा । सर्वेश्वर उनमें से एक थे । दिनमान के आरंभ से ही उसकी टीम ने पत्रकारिता की भाषायिक संरचना का विचार आरंभ कर दिया था । इसके चलते दिनमान ने अपनी एक अलग और खास पहचान बनाई । दिनमान ने अपने पाठक वर्ग की अवधारणा शक्ति को धीरे-धीरे विकसित करके उन्हें भाषा के नवीन प्रयोगों और शब्दों से अनायास परिचित कराने का प्रयास किया । सर्वेश्वर ने एकदम नीरस प्रसंगों के अपनी सहज-सरल भाषा में लिखकर पाठकों को अपने साथ लिया ।

सर्वेश्वर एक छोटे से कस्बे से महानगर में आए थे । इसलिए उनकी भाषा पर देशज प्रभाव साफ दिखते हैं । भाषा के मर्मज्ञ एवं उच्चकोटि का साहित्य सर्जक होने के बावजूद उन्होंने अपनी भाषा को किसी वायवीय दुनिया से बांधने की कोशिश नहीं की । वे हमेशा आम लोगों की भाषा में संवाद के हिमायती रहे । वे भाषा की पवित्रता के हिमयाती जरूर थे पर उन्होंने भाषा में क्लिष्टता से बचने का प्रयास किया । साहित्य की दुनिया से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो भी लिखा वह उनके सहज एवं प्रवाहपूर्ण भाषा-शैली का उदाहरण बन गया । सर्वेश्वर अपनी बात पाठक के मन में उतारते चलते हैं, बतियाते हुए । उन्होंने अपने स्तंभ चरचे और चरखे में बराबर पाठकों से सीधी एवं सरल भाषा में बातचीत करने की कोशिश की । इसलिए उपदेशक की भांति उपदेश देने की बजाय सर्वेश्वर संवादों एवं बातचीत का सहारा लेते हैं । ताकि लोग बातें समझ सकें और उनके अर्थ आसानी से ग्रहण कर सकें । सर्वेश्वर की यह विशेषता भाषा के सवाल पर उन्हें एक अच्छा सम्प्रेषक बनाती है । ऐसा लगता हैकि लिखते वक्त उनका पाठक सदैव उनके सामने रहता था, इसके चलते सर्वेश्वर को सम्प्रेषण में खास अड़चन न आती थी । अपन पाठक के प्रति अपनी जिम्मेदारी का भान सर्वेश्वर को पूरी शिद्दत से था ।

सर्वेश्वर ने मूलतः कला, साहित्य, संस्कृति से जुड़ी गतिविधियों की रिपोर्टिंग का काम किया । पर वे रिपोर्टर से ज्यादा बेहतर विश्लेषक साबित हुए । अपनी बात रखना और अपने भाषाई कौशल से पाठक को सहमत करते चलने की कला उनका गुण है । वे बराबर लिखते समय बातचीत की शैली का प्रयोग करते हैं ताकि स्थितियां ज्यादा सरलीकृत होकर पाटक के मन में जगह बना सकें । चरचे और चरखे में वे बड़ी से बड़ी समस्या पर शर्माजी नामक अपने पात्र से संवाद करते हुए स्थितियों की सजग व्याख्या करते थे । उनकी इस शैली को पाठक वर्ग में अपार लोकप्रियता मिली । सर्वेश्वर की यह नाटकीय शैली एक नाट्य बोध एवं उत्सुकता जगाती है । जैसे डण्डे से बचो नामक एक टिप्पणी में उनका एक पात्र कहता है –

“यह देश बिना डण्डे के ठीक नहीं हो सकता और इंदिरा गांधी के पास डण्डा है । वह आएंगी सब ठीक कर देंगी ।” उस लम्बी क्यू में किसी ने इसका प्रतिवाद नहीं किया । सबने खामोशी से अपनी सहमति व्यक्त की । लेकिन शर्माजी से न रहा गया । वे बोले – “और वह डण्डा आपके सिर को छोड़ सबके सिर पर पड़ेगा । आपका सर सलामत रहेगा ।”36

संवाद के माध्यम से बड़ी से बड़ी बात कहने की शैली ने सर्वेश्वर की लेखनी की सहजता को बनाए रखा । हम जानते हैं कि सर्वेश्वर एक अच्छे कवि ही नहीं नाटककार भी थे । उनके यह रूप पत्रकारिता के लेखन में भी देखने को मिलते हैं । नाटकीय प्रस्तुति से जहाँ वे पाठक के मन में रोमांच जगाते हैं वहीं विषय को स्पष्ट करने के लिए वे तुकबंदियां भी करते हैं। इन तुकबंदियों में पत्रकार सर्वेश्वर में बैठा कवि दिखता है । एक मरीज का दर्द नामक टिप्पणी में सर्वेश्वर पूरी बात तुकबंदियों में कहते हैं –

“हाजमा खराब है थोड़ा खाओ
छोड़े पकवान अब दलिया बनाओ ।
चाहे नमकीन हो चाहे हो मीठा,
ताजा पिसा हो, बासी हो सीठा,
खूब खुश रहो अपनी जियरा जुड़ाओ,
थोड़ा खाओ न मरो, न मुटाओ ।”37

सर्वेश्वर की यह तुकबंदियां सरल भाषा में होती थीं, जो सत्ता-व्यवस्था की सड़न को रेखांकित करती चलती हैं । सर्वेश्वर ने अक्सर व्यंग्य की भाषा में चुभती हुई बातें की हैं, जो बड़े अर्थ पैदा करती हैं । जहाँ वे एक जागरुक पत्रकार की भूमिका में सामने आते हैं, आह्वान करते दिखते हैं ।

“इस देश के नेताओं की जबान पर सब कुछ है सत्य के – चाहे वे सत्ता में हों या सत्ता में आने के मंसूबे बना रहे हों । देश का स्वीकृत आप्त वाक्य है – ‘सत्यमेव जयते’। पर असत्यमेव जयते में बदल गया है । गांधी ने कहा सत्य ही ईश्वर है । उसके चेलों ने ग्रहण किया असत्य ही सत्ता है ।”38

इस प्रकार सर्वेश्वर की भाषा जहाँ व्यंग्य एवं सरल तुकों के साथ चलती है, वहीं उसमें एक आह्वानकारी तल्खी भी है, जो अपने पाठकों को सम्बोधित और प्रबोधित करती चलती है । जो सत्ता प्रतिष्ठान में मचे कदाचार का पर्दाफाश करती चलती है । सर्वेश्वर भाषा के इसी धारदार इस्तेमाल के चलते भीड़ से अलग दिखते हैं । वे पाठक से उसी की भाषा में संवाद के अभ्यासी हैं । उसके शब्दों में संवाद करते हैं । श्रेष्ठ पत्रकार होने के नाते सर्वेश्वर साधारण एवं नीरस प्रसंगों को भी उठाते हैं तो अपनी काव्यात्मक शैली से उसे रोचक बना देते हैं । साहित्यिक भाषा और अभिव्यंजना शक्ति के प्रयोग की संभावनाएं एवं क्षमता रहते हुए भी सर्वेश्वर अपनी भाषा को पाठकों से दूर नहीं जाने देते ।

कुल मिलाकर सर्वेश्वर की भाषा पत्रकारीय क्षेत्र में चल रही भाषा से अलग एवं विशिष्ट रही है। क्योंकि वे मूलतः स्तंभकार एवं विश्लेषक के सूप में सामने आते हैं । अतः उन्हें शाब्दिक बाजीगरी के अवसर ज्यादा प्राप्त हुए हैं । संभव है वे समाचार लेखन के क्षेत्र में प्रयोग न कर पाते । इसके बाद भी उनकी भाषा में पांडित्य प्रदर्शन नहीं है । आलोचनात्मक एवं व्यंग्यात्मक शैली में लिखी गई उनकी टिप्पणियां वास्तव में उन्हें एक लोक्रप्रिय पत्रकार बनाती हैं । भाषा के प्रयोग एवं विकास के दो पक्ष हैं – शब्दावली की रचना और शब्दावली क प्रचलन । सर्वेश्वर ने इन दोनों मोर्चों पर भाषा को समृद्ध बनाने का प्रयास किया है । उनकी यह विशिष्टता सदैव रेखांकित की जाएगी । पत्रकार सर्वेश्वर की भाषा एवं उनके कवि, नाटककार सर्वेश्वर ने बराबर समृद्ध बनाया है । उनके पत्रकार एवं साहित्यकार व्यक्तित्व के द्वन्द में उनकी भाषा ज्यादा, विकसित, परिमार्जित एवं पुष्ट होकर सामने आती है । सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम भाषा है । सफल सर्जक को भाषा पर ध्यान देना ही पड़ता है । सर्वेश्वर की पत्रकारिता में सम्प्रेषण शक्ति गजब की है । उनकी भाषा में जीवन और अनुभव का खुलापन तथा मामूली आदमी से जुड़ाव का गहरा भाव है । सर्वेश्वर की भाषा पाठक से आत्मीय रिश्ता कायम करती हुई अनुभूति की हर परत को उघाड़ कर रख देती है कि अनेक बार तो पाठक यही अनुभव करता है कि कथ्य ही भाषा बन गया है । इस प्रक्रिया में कहीं तत्सम और परिष्कृत शब्द उसके सामने आए हैं, कहीं अंग्रेजी, उर्दू और दैनिक जीवन के तो कहीं चिर-परिचित शब्द भी नए अर्थ के वाहक बनकर आए हैं । आम तौर पर सर्वेश्वर की भाषा बोलचाल की भाषा है । वह उनके आसपास फैले परिवेश की देन है । उनमें ऐसे शब्द अधिक हैं, जो जिंदगी की भाषा का निर्माण करते हैं । सर्वेश्वर बराबर यह महसूस करते हैं किपरिवेश की सही व्यंजना और उसमें उभरती स्थितियों और उनसे जुड़े मानवीय भावों, मनोभावों, क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के सम्प्रेषण के लिए भाषा की शक्तियों का सही इस्तेमाल जरूरी है । भाषा ही वह शक्ति है जो जीवन की सच्चाइयों से अवगत कराती है । उनका मामूली शब्द भी गहरी अर्थवत्ता को लेकर उपस्थित होता है ।
सर्वेश्वर की भाषा में न तो अभिजात्य हैं, न तत्समीकरण और न शब्दों का अपव्यय । उन्होंने अपनी अनुभूतियों के सम्प्रेषण के लिए बोलचाल की उस शब्दावली को काम में लिया है जो हमारे परिवेश में मिली-जुली है और हमारे रोजमर्रा के काम की है । सर्वेश्वर और अज्ञेय की भाषा में मूल अंतर ही यह है कि अज्ञेय की भाषा में अभिजात्य लाने के प्रयास में जनजीवन से दूर का रिश्ता कायम करते हैं और सर्वेश्वर जनजीवन की शब्दावली को अपनाकर उससे करीबी रिश्ता कायम कर लेते हैं । नतीजतन अज्ञेय के शब्द पाठक को बांधते तो हैं, पर उसे आत्मीय नहीं बना पाते, जबकि सर्वेश्वर के शब्द पाठक से बतियाते हुए उसी के साथ हो लेते हैं । उनकी भाषा को किसी शब्द से परहेज नहीं रहा है, जो सम्प्रेषण में सहायक हो सकता है । इसी डेमोक्रेटिक व्यू के चलते सर्वेश्वर की भाषा में उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, ब्रज और लोकजीवन की शब्दावली बेखटके चली आई है । इन अर्थों में सर्वेश्वर ने अपनी अभिव्यक्ति को ईमानदार, प्रभावी और पाठकीय संवेदना का हिस्सा बनाए रखा है । सर्वेश्वर भाषा के सवाल पर बहुत संजीदा हैं । वे अपनी एक कविता में कहते हैं –

“और आज छीनने आए हैं वे
हमसे हमारी भाषा
यानी हमसे हमारा रूप
जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है
और जो स जंगल में
इतना विकृत हो चुका है
कि जल्दी पहचान में नहीं आता ।”39

वस्तुतः हमसे हमारी भाषा का छिन जाना हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व का मिट जाना है । जंद मामूली से शब्दों के द्वारा ही (छीनने आए हैं वे... हमसे हमारा रूप) कवि ने यह अर्थ हमें सौंप दिया है कि भाषा का छिन जाना हमारी जातीय परंपरा, संस्कृति, इतिहास और दर्शन का छिन जाना है। सर्वेश्वर हमारी सांस्कृतिक चेतन पर आए इस संकट को पहचानते हैं । वस्तुतः भाषा के सवाल पर यह संजीदगी सर्वेश्वर को एक जिम्मेदार पत्रकार बनाती है । सर्वेश्वर का पत्रकार इसी प्रेरणा के चलते पाठक में एक चेतना और अर्थवत्ता भरता नजर आता है । सर्वेश्वर की लेखनी से गुजरता पाठक, उनकी लेखनी से निकले प्रत्येक शब्द को अपनी चेतना का अंग बना लेता है । ऐसा इसलिए क्योंकि सर्वेश्वर पूरी ईमानदारी और संवेदना के साथ पाठक की चेतना को सम्प्रेषित करते हैं । सर्वेश्वर ने इसीलिए ऐसी भाषा तलाशी है जो वर्तमान परिवेश में सांस लेने वाले हरेक इन्सान की हैं, हरेक की जानी पहचानी है और हरेक का उससे गहरा और करीबी रिश्ता है ।

संदर्भ –

1. चरचे और चरखे – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (पृ. 215)
2. वही (पृ. 215)
3. वही (पृ. 30)
4. वही (पृ. 39)
5. वही (पृ. 51)
6. वही (पृ. 74)
7. वही (पृ. 81)
8. वही (पृ. 90)
9. वही (पृ. 89)
10. वही (पृ. 119)
11. वही (पृ. 130, 131)
12. वही (पृ. 140)
13. वही (पृ. 163)
14. वही (पृ. 176)
15. चरचे और चरखे – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (पृ. 198)
16. वही (पृ. 200)
17. वही (पृ. 189)
18. वही (पृ. 101)
19. वही (पृ. 146)
20. दिनमान (7-13 फरवरी, 82, पृ. 10)
21. दिनमान (21-27 मार्च, 82, पृ. 10)
22. चरचे और चरखे – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (पृ. 193)
23. वही (पृ. 195)
24. वही (पृ. 204)
25. वही (पृ. 209)
26. वही (पृ. 104)
27. वही (पृ. 10)
28. वही (पृ. 11)
29. वही (पृ. 14)
30. वही (पृ. 14)
31. वही (पृ. 15)
32. वही (पृ. 48)
33. वही (पृ. 49)
34. हिंदी पत्रकारिता – विविध आयाम (सं. वेद प्रताप वैदिक) प्रथम संस्करण 1976 (पृ. 501)
35. वही (पृ. 502)
36. चरचे और चरखे – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (पृ. 121)
37. वही (पृ. 183)
38. वही (पृ. 12)
39. गर्म हवाएं – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (पृ. 28)

1 comment:

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