राजनीतिक संदर्भ


सर्वेश्वर ने अपने समय की राजनीति पर तीखी टिप्पणियां लिखी हैं । समाजवादी, लोहियावादी विचारों की भावभूमि ने उनके लेखन को अतिरिक्त धार दी है । वे समूची राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश से भरे दिखते हैं । आम आदमी के जीवन से जुड़ी विसंगतियों, उसके संत्रासों के खिलाफ वे राजनीति से नैतिक अपेक्षाएं पालते हैं । ऐसा न होता देख वे समूची राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खड़ा करके आरोपित करते हैं । राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ रही मूल्यहीनता, गैरजिम्मेदारी एवं जनता के प्रति अन्याय एवं दमन पर हल्ला बोलते नजर आते हैं । राजनीति से सामाजिक बदलाव की अपेक्षा पालते हुए सर्वेश्वर निराश नहीं दिखते । उन्हें लगता है कि लोग खड़े होंगे और बदलाव आएगा । राजनीतिक तंत्र के प्रति गहरी निराशा के बावजूद उनमें एक आशावाद भरा है । यही आशावाद उनके लेखन की जीवंतता है । वे इसे समझते हुए लोगों के प्रेरित करने का काम करते हैं, लोगों की मुक्ति चाहते हैं । वे समाज के प्रत्येक वर्ग से यह आशा पालते हैं कि वह राजनीतिक दुरावस्था के खिलाफ चल रहे प्रतिरोधों का हिस्सेदार बने । आम आदमी के प्रति लगाव के कारण सर्वेश्वर की पत्रकारिता एक जनधर्मी रुझान की पत्रकारिता कही जा सकती है। उनकी राजनीतिक टिप्पणियां इसीलिए बहुत तल्ख हो जाती हैं । शब्दों से हथियार का काम लेना वे बखूबी जानते हैं, पर इन सबके बीच वह लेखक की मर्यादा का विचार भी करते हैं । उनकी चाहत बदलाव के लिए लड़ रहे लोगों को हौसला देने की है । इसीलिए बहुत छोटे पैमाने पर गांव-कस्बों में चलाए जा रहे जनसंगठनों के प्रतिरोध उनमें एक आशा का संचार करते हैं । सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था से क्षुब्ध सर्वेश्वर के लिए यह क्षण आत्मसंतोष का होता है । ऐसे प्रसंगों के सीमित प्रभाव के बावजूद वे उसे महत्वपूर्ण मानते हुए अपनी पत्रिका एवं स्तंभ में जगह देते थे । सत्य के प्रति उनका आग्रह जबरदस्त था । वे मानते थे आज के दौर में सत्य कहना ज्यादा महत्वपूर्ण है, सच कौन कह रहा है, यह सवाल उतने महत्व का नहीं है । वे मानते थे कि गलत बुनियाद से सच्चाई की आवाज नहीं आ सकती । वे सामंतवादी, सत्तावादी संस्कारों से परे एक आम आदमी की पीड़ा के वाहक थे । उनकी समूची सृजन यात्रा इसी भाव में रची-बसी है । राजनीतिक सवालों पर भी वे दिल्ली की धमाचौकड़ी और उठापटक के बीच इससे आम आदमी पर पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करते रहते थे । राजनीतिक पत्रकारिता उनके लिए सत्ता-प्रतिष्ठानों की सत्तावादी राजनीतिक शैली का आईना मात्र न थी, वह सरकार एवं जनता के अंतर्संम्बधों की विवेचना, सामाजिक परिवर्तन के हथियार के रूप में उसके इस्तेमाल की जरूरत ज्यादा थी । इन अर्थों में सर्वेश्वर अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के भाव से न कभी कटे न विलग हुए । उनकी यह पत्रकारीय सोच आज के समय मे चल रही राजनीतिक पत्रकारिता की सोच के बिल्कुल उल्टी है । उनकी राजनीतिक पत्रकारिता लोगों मे बदल की लड़ाई की धार को तेज करने में सहायक बनी । उनकी राजनीतिक पत्रकारिता लोगों में सामाजिक-राजनीतिक चेतना जगाने एवं उन्हें बदलाव के लिए खड़ा करने को प्रयासरत थी। इन अर्थों में वे एक सच्चे लोकमत निर्माता थे ।

सर्वेश्वर आजादी के बाद गांधी और गांधीवाद के हुए व्यापक दुरुपयोग पर बहुत क्षुब्ध थे । आजादी के बाद गांदी के सपनों की उनके शिष्यों ने जैसी गत बनाई वह सर्वेश्वर के लिए असहनयी पीड़ा का विषय था । वे वर्तमान शासन एवं गांधीवाद के आदर्शों की तुलना करते हुए गांधीवाद इस देश की चेतना में जहरवाद की तरह फैल गया है शीर्षक से एक टिप्पणी में सपनों का हवाला देते हुए वर्तमान सत्ता को गांधीवादी विचारों का हत्यारा बताते हैं । अपनी इस टिप्पणी में सपनों के तार-तार होकर बिखर जाने की व्यथा को अभिव्यक्त करने के लिए वे अपनी एक कविता का हवाला देते हैं –

“मैं जानता हूँ
क्या हुआ तुम्हारी लंगोटी का ?
उत्सवों में अधिकारियों के
बिल्ले बनाने के काम आ गई ।
भीड़ से बचकर
एक सम्मनित विशेष द्वार से
आखिर वे उसी के सहारे तो जा सकते थे ।
और तुम्हारी लाठी ?
उसी को टेककर चल रही है
एक बिगड़ी-दिमाग डगमगाती सत्ता-”27

सर्वेश्वर, गांधी के नाम का घृणास्पद इस्तेमाल देखकर अपने आपको रोक नहीं पाते, वे लिखते हैं – “गांधी और गांधीवाद के नाम पर हर एक का रोजगार चमक रहा है । उनकी समाधि पर फूल चढ़ाकर, सब अपनी फूलों की सेज सजाते रहे हैं । इस पर ज्यादा कहना कोई मायने नहीं रखता । इस देश के नेताओं का काम गांधी के बिना नहीं चलता । यद्यपि गांधी से किसी को कोई सरोकार नहीं है । बल्कि गांधी के सिद्धां के विपरीत जो कुछ है उसे ही गरिमा प्रदान करने की घटिया कोशिश की जा रही है ।”28
(चरचे और चरखे पृ. 11)

सर्वेश्वर अपनी इस विवेचना को बढ़ाते हुए कहते हैं – “सत्याग्रह, अहिंसा, सत्य, सर्वधर्म समभाव, हरिजनोद्धार जैसे – गांधीवादी विचारों की इन सरकारों ने बलि चढ़ा दी है ।” वे साफगोई से कहते हैं गांधीवाद इस देश में कर्म से नहीं जुड़ा, कुकर्म में जरूर परिणत हुआ । सर्वेश्वर अपनी तल्ख टिप्पणी में आगे लिखते हैं – “फिर भी यह देश गांधी और गांधीवाद को अपनी छाती से चिपकाए घूम रहा है, जैसे बन्दरिया अपने बच्चे की लाश को चिपकाए घूमती है । गांधीवाद की कोई संगति है तो यही कि अब वह इस देश के शरीर में जहरवाद की तरह फैल गया है।”29
(चरचे और चरखे पृ. 14)

सर्वेश्वर, गांधी जैसी विभूति के व्यापक दुरुपयोग पर अपनी पीड़ा छिपा नहीं पाते और एक स्पष्टभाषी पत्रकार की भांति अपनी भूमिका को बखूबी पहचानते हैं । इसी टिप्पणी में वे विनोबा भावे को आड़े हाथों लेते हुए कहते हैं – “व्यापारी गांधीवादियों ने देश में व्यापार चला रखा है । मठाधीश गांधीवाद भी उन्हीं के हिमायती हैं । ये सत्ता में भले न हों सत्ता के साथ हैं । हर गलत काम के साथ अपन आशीर्वाद देने को तत्पर – हाथ बढ़ाए । इनमें से एक हैं – विनोबा भावे, जो इस देश में गांधीवाद की हास्यास्पद परिणति हैं । आपातकाल का समर्थन करते हैं – और हर कुकृत्य के लिए आशीर्वाद के हाथ उठाए रहते हैं ।”30
(चरचे और चरखे पृ. 14)

यह टिप्पणी बताती है कि सर्वेश्वर की लेखन किसी को नहीं बख्शती, वे सत्य के आग्रही हैं और उसके लिए कुछ भी करने की आकांक्षा से उनकी लेखनी भरी-पूरी है । वे अन्याय एवं दमन का साथ देने वालों, यथास्थितिवादियों को भी दोषी ठहराते हैं । सर्वेश्वर के लेखन में विनय नहीं है, वे अपनी बात को पूरी तल्खी एवं तेजाबीपन से कहने के अभ्यासी हैं ।

सर्वेश्वर की पत्रकारिता में व्यंग्य का गहरा पुट है । वे अपनी राजनीतिक टिप्पणियों में व्यंग्य करते दिखते हैं । भारतीय राजनीति स्पष्टीकरण कोष शीर्षक वाली अपनी टिप्पणी में सर्वेश्वर व्यंग्यात्मक लहजे में राजनीतिक क्षेत्र में मचे अंधेर को बेनकाब करते हैं । राजनेताओं के बदलते बयानों, उनके दलबदल एवं अस्थिर एवं गैर विचारधारात्मक गतिविधियों को रेखांकित करते हुए सर्वेश्वर इस पूरी धमाचौकड़ी पर अपना क्षोभ व्यक्त करते हैं । वे कहते हैं राजनीतिक संदर्भ में सारे शब्द अपनी अस्मिता एवं अर्थ खो चुके हैं । राजनीतिक मूल्यहीनता के दैर में यह एक महासंकट है । संवाद शैली में लिखी इस टिप्पणी में भारतीय राजनीति स्पष्टीकरण कोष के निर्माण में लगा इनका एक पात्र शब्द के नए अर्थ बताता है, जिनमें कुछ उल्लेखनीय हैं –

लोकतंत्र – नेताओं को नेताओं द्वारा, नेताओं के लिए ।
विचारधारा – सांठ गांठ ।
देश का हित – निजी स्वार्थ ।
साम्प्रदायिकता – अपने गुण्डों की हिफाजत ।
प्रगति – दलबदल ।
नेता – स्वार्थी, पदलोलुप ।
कार्यकर्ता – शोषित ।
अल्पसंख्यक – घास जिसे जितनी काटिए उतनी ही पनपती है ।31

सर्वेश्वर जनता में एक राजनीतिक सोच का विकास देखना चाहते थे । वे चाहते थे लोग आगे आएं और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए तत्परता दिखाएं । वे मतदाता की उदासीनता के खिलाफ थे । वे चाहते थे कि मतदाता अपने नेताओं से सवाल करें । वे उन पर एक जनदबाव बनाएं ताकि वे जनकल्याण के कार्य में समय दें । सर्वेश्वर जनता और राजनेताओं के ठंडे रिश्ते एवं दूरियों में एक संवाद बनाना चाहते थे । उनका मानना था कि संवाद के बिना उत्तरदायित्व एवं भागीदारी के भाव नहीं पनप सकते । वे अपने लेखन में लोगों का आह्वान करते हैं कि वे अपने नेताओं से जवाब मांगें । उनके वादों पर अमल के लिए उन पर दबाव बनाएं, तभी अराजकता मिटेगी । राजनीति में उत्तदायित्यव के भाव आएंगे । वे चाहते थे सत्ता में आने वाला प्रत्येक दल अपने घोषणा-पत्रों पर अमल करें । क्योंकि जनता ने उस पर भरोसा जताया है । वे अबकाम लो नामक लेख में लोगों का आह्वान करते हुए लिखते हैं – “यह स्तंभकार चाहता है कि यह सोच ग्रामीणों भाइयों, पिछड़ी जातियों में शुरु हो । वह अपना हक समझें । यह भी समझें कि जो-जो वायदे चुनाव के वक्त उनसे किए गए हैं, उन्हें पूरा करना उनका फर्ज है । नेताओँ को उनके धर्म पर न छोड़ दें . यदि वह किए गए वायदे पूरे नहीं करते तो उनको अपने निर्वाचन क्षेत्र में घुसने न दें, उनका घेराव करें और उन्हें वापस बुलाने की मांग उठाएं । जन अदालतें बनाएं और उन पर मुकदमा चलाएं । अन्यथा यह चुनाव-चक्र नहीं टूटेगा ।”32
(चरचे और चरखे पृ. 48)

इस प्रकार हम पाते हैं कि सर्वेश्वर की पत्रकारिता सिर्फ समस्याएं गिनाती नहीं चलती, वह अपने पाठकों को समस्या के व्यावहारिक समाधान बताती चलती है । वह अंधेरों से मुक्ति के रास्ते बताती है । वह बताती है अन्याय एवं दमन के खिलाफ लोग कैसे प्रतिरोध दर्ज कराएं ? वह मतदाता-जनता में जिम्मेदारी के भाव जगाती है ? सर्वेश्वर निश्चय ही देश को नेताओं के हवाले छोड़ देने के खिलाफ हैं । वे जनता को एक सामाजिक दण्ड शक्ति के रूप में बदलते देखना चाहते हैं । जनता से वे अपेक्षा पालते हैं कि वह राजनीति के नियाजुमकों से जवाब मांगें । वे साफ लिखते हैं – “बहुत छूट मिल गई है इस देश में नेताओं को । न वह कुछ करना चाहते हैं और न हम उन्हें कुछ करने के लिए मजबूर करना चाहते हैं । इस चुनाव के बाद यह नहीं चलना चाहिए । लोक प्रतिनिधियों से टकराना होगा और उन्हें बताना होगा कि अबवे बिना घोषणापत्र के अनुरूप काम किए समजा में वापस नहीं लौट सकते, न स्वीकार किए जा सकते हैं । उन्हें काम करने के लिए मजबूर करने से हि लोक-कर्म की शुरुआत होगी जिधर से होकर क्रांति का रास्ता है ।”33
(चरचे और चरखे पृ. 49)

इस प्रकार सर्वेश्वर की पत्रकारिता आह्वान से भरी है । वह जड़ता को तोड़कर समाज में नए मूल्यों की स्थापना करना चाहती है। वह राजनीति एवं जनता के बीच एक जवाबदेह एवं उत्तरदायित्वपूर्ण रिश्ते को तलाशती दिखती है । सर्वेश्वर यह कहते समय सत्ता या नेताओं का भय नहीं पालते, वे बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहते हैं । इन अर्थों में वे कबीर की तरह मुंहफट भी हैं । वे सत्य अन्वेषक एवं आग्रही हैं । कलम की मर्यादा का उन्हें भान है और वे उस बचाना और रखना जानते हैं ।
राजनीतिक दलों द्वारा युवाओं की ताकत के दुरुपयोग का सवाल वे बराबर उठाते रहे हैं । वे मानते हैं कि राजनीतिक दलों की युवा शाखाएं समाज परिवर्तन में युवाओं की ताकत के रचनात्मक इस्तेमाल का कौशल पैदा करें । वे युवा शक्ति व राजनीतिक दलों के रिश्ते बदलना चाहते थे । कार्यक्रम नहीं समारोह चाहिए नामक टिप्पणी में उन्होंने युवा राजनीति में युवक कांग्रेस की भूमिका पर तमाम सवालिया निशान खड़े किए हैं । वे मानते हैं कि युवा इकाइयां चाह लें तो देश में बदलाव की आग को तेज किया जा सकता है, पर निहित राजनीतिक स्वार्थ उन्हं एक सीमा से आगे बढ़ने नहीं देते । वे माओ के रेड गार्डस का हवाला देते हुए कहते हैं कि युवा शक्ति चाहे तो सब कुछ ठीक हो सकता है । लेकिन इसकेलिए उन्हें अपने छोटे-मोटे निहित स्वार्थों से ऊपर उठना होगा । वे साफ कहते हैं युवा समारोहों में सत्ता की लोलुपता है, बदलाव का सपना नहीं । सारे आयोजन दिखावे एवं प्रचार का साधन बन गए हैं । इसमें नैतिक बल एवं इच्छा शक्ति कहाँ दिखती है ? दहेज शिक्षा, बेरोजगारी जैसे सवालों पर युवा शक्ति के मौन को वे एक नकारात्मक संकेत मानते हैं ।

जनता पार्टी के शासनकाल में आपसी जोड़तोड़ एवं सत्ता संघर्ष के सवालों को सर्वेश्वर ने बड़े नाटकीय ढंग से कई प्रसंगों पर रेखांकित किया। खासकर चौधरी चरण सिंह, बाबू जगजीवन राम की भूमिका पर उन्होंने खूब लिखा । वे मानने लगे थे कि इन सबके सिद्धांतों एवं स्वार्थों में कोई भेद नहीं है, लेकिन सिद्धांतों का गाना सभी गा रहे हैं ।

राजनीतिक दलों की सामाजिक सवालों से लाभ उठाने की प्रवृत्ति एवं भीड़वाद से सर्वेश्वर को खासी चिढ़ थी । वे बदलाव के लिए लड़ रहे छोटे समूह या संगठन को उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे जो राजनीतिक दल हर समस्या के राजनीतिक इस्तेमाल के प्रयास में रहते हैं । वे जुलूस में लोगों की भीड़ से लोगों के हौसले व संकल्पों को मापने के पक्ष में न थे । बड़ी मछली छोटी मछली नामक एक टिप्पणी में उन्होंने राजनीतिक दलों की इस प्रवृत्ति की ओर संकेत किया है । वे बताते हैं कि कैसे ये दल दहेज हत्या जैसे सवालों पर उनका सहयोग कर रहे जनसंगठनों को पीछे ढकेल कर इस सवाल को पार्टी के राजनीतिक लाभ का विषय बना देते हैं । वे लिखते हैं – “तालाब में जैसे छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है, उसी तरह बड़े राजनीतिक दल छोटे संगठनों और संस्थानों को निगल जाते हैं ।” वे कहते हैं कि यह बहुत चिंताजनक है कि सामाजिक मसले पर भी राजनीतिक दल एक साथ नहीं आना चाहते । लगता है, उन्हें समस्या की नहीं अपनी राजनीति की ही चिंता है ।

सर्वेश्वर लोकतांत्रिक शासन प्रक्रिया की खामियों के बावजूद उसमें भरोसा रखते थे । वे लोकतंत्र को ज्यादा प्राणवान, ऊर्जावान एवं जीवंत देखना चाहते थे । वे मानते थे कि लोकतंत्र का कोई बेहतर विकल्प नहीं हो सकता । वे मानते थे कि आदमी लोकतंत्र में अपनी बेहतरी के लिए लड़ सकता है पर तानाशाही में उसे जितना मिला उसी में संतोष करना होगा । वे मानते थे कि तानाशाही अपने आप में एक अमानवीय व्यवस्था है, जो तानाशाह के लाख अच्छा प्रशासक होने के बाद भी बदलाव को रोक यथास्थितिवाद को बनाए रखने के प्रयास करती है । वे राजनीति का चरित्र बदलने के पक्ष में थे । समाज की बुनियाद में परिवर्तन चाहते थे । गरीबी, अशिक्षा, बेकारी जैसे सवालों पर लोगों की एकता चाहते थे । आजादी को सही अर्थों में फलीभूत देखने के लिए वे लोगों में चेतना का संचार चाहते थे ।

सर्वेश्वर ने राजनीतिक सवालों पर तीखे व्यंग्य लिखे और लोगों को झकझोरा । वे सवाल खड़े करते थे और उनके पास इसके जवाब थे । उनकी आँखों में बदलाव का सपना पल रहा था । वे दाढ़ी की राजनीति, लोकतंत्र का लड्डू, जूते का तर्क, लोकतंत्र और प्याज, टिकटार्थी, संजय अखाड़ा, अखिल भारतीय बकरा यूनियन, बाबा जी का टेप, असली जगजीवन राम की खोज जैसे व्यंगपरक लेखों में अपनी भाषा के जौहर दिखाते हैं । संवाद की चुटीली शैली उनके सेखन को समादृत करती है । एक रास्ता दिखाती है । लोग क्या चाहते हैं यह बताती है । सवाल खड़े करना उनकी आदत में शुमार है । साथ ही वे जनता को विकल्प भी देते हैं कि वह इन सवालों से जूझे ।

भ्रष्ट राजनीतिज्ञ एवं सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था सर्वेश्वर के निशाने पर रहे हैं । वे बराबर उनकी अपनी व्यंग्यात्मक टिप्पणियों में लानत-मलानत करते रहे हैं । जानवर और चुनाव चिन्ह शीर्षक टिप्पणी में लेखक ने पशुओं को केन्द्र में रखकर मजेदार सवाल खड़े किए हैं । नाटकीय शैली में लिखे गए इस आलेख में सर्वेश्वर जानवरों से संवाद करते हैं । जानवरों के मुख से वे हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर तीखी टिप्पणियां करवाते हैं । इसमें जानवरों ने चुनाव-चिन्ह के रूप में अपने इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति जताई है । इसमें मुर्गा कहता है – “हम आवाज लगाते हैं तो सूरज उगता है । आदमी जाग उठता है और आपके ये राजनीतिज्ञ आवाज लगाते हैं तो देश सो जाता है । अंधेरा छा जाता है ।” (चरचे और चरखे पृ. 234)

एक अन्य जानवर कहता है । हमें चुनाव चिन्ह के रूप में इस्तेमाल पर घोर आपत्ति है – “एतराज ! यह हमारा सरासर अपमान है । हम आदमियों को अपने से घटिया समझते हैं । हम नहीं चाहते कि हमारे गुणों की पॉलिश वे अपने चमरोंधे व्यक्तित्व पर कर उसे चमकाएं । वे जड़ चीजों से काम चलाएं जिसके वे योग्य हैं । हम आपके कैदखाने में जरूर हैं । पर हमने अपनी आत्मा नहीं बेची है ।” चिड़ियाघर में सर्वेश्वर का जानवरों से यह काल्पनिक संवाद उन्हें सिर्फ पत्रकार नहीं रहने देता । इसमें वे अपने साहित्यकार एवं नाटककार के रूप को जागृत करते हैं । सामाजिक सवालों पर ऐसे काल्पनिक संवादों के माध्यम से बड़ी से बड़ी बात कह जाने का साहस सर्वेश्वर ही पाल सकते हैं । यह हुनर एवं कौशल सर्वेश्वर की कला को परवान चढ़ाता है ।

सर्वेश्वर की राजनीतिक बड़ी पवित्र थी । वे राजनीति को सेवा के माध्यम से अलग कुछ भी मानने को तैयार न थे । उनकी सोच थी कि परिवर्तन का यह चक्र रुका या ठहरा तो पूरा तंत्र भ्रष्ट हो जाएगा । वे राजनेताओं से सी प्रकार की अपेक्षा रखते हैं कि वे अपने आचरणों एवं कर्मों से ऐसे दिखें कि राजनीति के सही लक्ष्य पाए जा सकें । चन्द्रशेखर की भारत यात्रा (पदयात्रा) के समय उनके स्वागत के लिए दिल्ली में हुए लाखों रुपए खर्च हुए आयोजनों, पोस्टरबाजी को वे सहन नहीं कर पाते । दोनों चेहरे कागज के हैं नामक टिप्पणी में इन्हीं संदर्भों पर वे एक मजदूर से बात करते हुए पूरी राजनीतिक नौटंकी पर अपना विरोध दर्ज कराते हैं । उनका पात्र कहता है – “सोचता हूँ साहेब कि सारी दिल्ली में इतने पोस्टर लगे हैं, लाखों रुपया इन पर खर्च हुआ है । जो आदमी कन्याकुमारी से चार हजार मील पैदल चलकर आया है । आदिवासी इलाकों में जिस आदमी के पैर पकड़-पकड़ लोगों ने पीने का पानी मांगा और जो कहता है इसकी उसे बेहद तकलीफ हुई, वह यदि चाहता तो इस इलाके में इन पोस्टरों के रुपए से चार कुंए ही खुदवा देता, आठ-दस नलकूप खुदवा देता ।”

सर्वेश्वर यहीं नहीं ठहरते, वे राजनीति को रास्ता दिखाने, कर्तव्यबोध कराने वाले पत्रकार थे । उनका पात्र आगे कहता है – “ऐसा एक भी बयान दिखा दीजिए जिसमें उन्होंने कहा हो कि मेरे स्वागत में दिल्ली में मेरी पार्टी पैसा बरबाद न करे । पोस्टर आदि का रूढिगत दिखावा न करे । चाहे पहले का न सही, बाद का ही कोई बयान दिखा दीजिए जिससे पता चलता हो की लाखों रुपए के इस दुरुयोग का उन्हें कोई दुख हुआ हो और वे इस तरह के प्रचार के खिलाफ हैं । कहीं कोई पछतावा नहीं दीखता है ।”

सर्वेश्वर की यह टिप्पणी बताती है कि वे राजनीतिक जीवन में दिखावे के खिलाफ थे । वे चाहते थे देश का राजनीतिक नेतृत्व पूरी संवेदनशीलता से सवालों से जूझे और जनता के सामने घिर आए सवालों का समाधान करे । वे जनता एवं नेता की दूरी को अच्छा नहीं मानते थे । लोगों के सवालों, समस्याओं से निरपेक्ष नेतृत्व से वे बदलाव की अपेक्षी नहीं करते थे । वे चाहते थे नेतृत्व लोगों के बीच से खड़ा हो जो पूरी संवेदना से उनके सवालों से जूझ सकने के भाव से भरा हो । सर्वेश्वर की यह पीड़ा उनकी लेखन यात्रा में बराबर दिखती है । सर्वेश्वर की पत्रकारिता का बड़प्पन यही है कि वह आम लोगों की समस्याओं से संवाद कराती है । वह आम आदमी के संत्रासों से जुड़ी है । सर्वेश्वर की पत्रकारिता सिर्फ अपने सामाजिक सरोकारों के चलते ज्यादा ग्राह्य एवं स्वीकार्य है । सर्वेश्वर ने आम आदमी के दर्द को जिस संवेदनशीलता से अपनी पत्रकारिता में जगह दी है वह महत्वपूर्ण है । वह उपदेशक की मानसिकता से नहीं, लोगों के साथ चलने वाले, खड़े रहने वाले पत्रकार की भूमिका में सामने आते हैं । सर्वेश्वर के इस योगदान को समझना एवं पहचानना उनकी पत्रकारिता के प्रदेय को समझना है ।

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