समसामयिक पत्रकारिता का परिदृश्य



अखबार की दुनिया इन दिनों कासी बेचैन है । बाजार के दबाव और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच उलझी अखबारी दुनिया नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक की क्रांति, अखबारों का पढ़ता प्रसार, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों से उसकी रिश्तेदारी को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी हैं ।

ज्यादा पृष्ठ और ज्यादा सामग्री देकर भी आज अखबार अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे हैं, यह भी मीडियाकर्मियों के सामने एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि पहले पाठक को अपने खास अखबार की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से अपना अखबार बदल लेता है । हिंदी क्षेत्र में समाचार पत्र विक्रेता मनचारा अखबार दे देते हैं और अब उसका पाठक किसी खास अखबार की तरफदारी में खड़ा नहीं होता । क्या हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान ख रहे हैं ? क्या उनकी अपनी विशिष्टता का लोप हो रहा है ? जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं । जनसत्ता जैसे प्रयोग भी अपनी आभा खो रहे हैं । बात सिर्फ यहीं तक नहीं है, हिंदी क्षेत्र में पत्रकारिता आज भी मिशन और प्रोफेशन की अर्थहीन बहस के द्वन्द से उबरकर कोई मानक नहीं गढ़ पा रही है । जबकि बदलती दुनिया के मद्देनजर ऐसी बहसें अप्रासंगिक और बेमानी हो उठी हैं ।

आज अखबार के प्रकाशन में लगने वाली भारी पूंजी के चलते इसने उद्योग का रूप ले लिया है । ऐसे में उसमें लगने वाला पैसा किस प्रकार मिशनरी संकल्पों का वाहक बन सकता है ? यह तंत्र अब सीधा अखबार प्रकाशक के हित लाभ से जुड़ गया है । करोड़ों की पूंजी लगाकर बैठे किसी अखबार मालिक से धर्मदा कार्य की अपेक्षा नहीं पालनी चाहिए । व्यवसायीकरण का यह दौर पत्रकारिता के सामने चुनौती जरूर दिखता है, पर रास्ता इससे ही निकलना होगा । पत्रकारिता का भला-बुरा जो कुछ भी है वह मुख्यतः समाचार पत्र के प्रकाशक की निर्धारित की गई रीति-नीति पर निर्भर करता है । ऐसे में समाचार-विचार के संदर्भ में अखबार मालिक की रीति-नीति को चुनौती भी कैसे दी जा सकती है । समाचार पत्रों का प्रबंधन यदि संपादक की संप्रभुता को अनुकूलित कर रहा है तो आप विवश खड़े देखने के अलावा क्या कर सकते हैं । यह बात भी काभी हद तक काबिले गौर है कि पत्रकार अपनी भूमिका और दायित्वों पर बहस करने के बजाय समाचार पत्र मालिक की भूमिका के बारे में ज्यादा बातें करते हैं ।

हम देखें तो पता चलता है कि अखबार की घटती स्वीकार्यता एवं संपादक के घटते कद ने मालिकों की सीमाएं बढ़ा दी हैं । अखबार अगर वैचारिक अधिष्ठान का रास्ता छोड़कर बाजार की हर सड़ी-गली मान्यताओं को स्वीकारते जाएंगे तो यह खतरा तो आना ही था । आज मालिक-संपादक के रिश्तों की तस्वीर बदल चुकी है । आज का रिश्ता प्रतिस्पर्धा और अविश्वास का रिश्ता है । अवमूल्यन दोनों तरफ से हा है हिंदी पत्रकारिता पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि वह आजादी के बाद अपनी धार खो बैठी । समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था । मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है । साधन सम्पन्नता एवं एक राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित होने के बावजूद पत्रकारिता का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया, जो उसकी मूल पूंजी थे । यही कारण है कि लोग बीबीसी की खबरों पर तो भरोसा करते हैं पर अपने अखबार पर से उन्हें भरोसा कम हुआ है । हिंदी पत्रकारिता की दुनिया बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी जैसे तमाम यशस्वी पत्रकारों की बनाई जमीन पर खड़ी है, पर इन नामों औरइनके आदर्शं को हमने बिसरा दिया। अपने उज्ज्वल और क्रंतिकारी अतीत से कटकर अंग्रेजी पत्रकारिता का जूठन उठाना और खाना हमारी दिनचर्या बन गई है । हिंदी में ‘विचार दारिद्रय’ का संकट गहराने के कारण पत्रकारिता में ‘अनुवादी लालों’ की पूछ-परख बढ़ गई है । आजादी के पूर्व हमारी हिंदी पट्टी की पत्रकारिता सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करती थी । आज वह जनांदोलनों से कटकर मात्र सत्ताधीशों की वाणी एवं सत्ता –संघर्ष का आईना भर रह गई है । ऐसे में अगर अखबारों एवं पाठकों के बीच दूरियां बढ़ रही हैं तो आश्चर्य क्या है ? अगर आप पाठकों एवं उनके सरोकारों की चिंता नहीं करते तो पाठक आपकी चिंता क्यों करेगा ? ऊँचे प्रतिष्ठानों, विशालकाय छलाई मशीनों, विविध रंगों तथा आकर्षक प्रस्तुति के साथ छपने के बावजूद अखबार अपनी आभा क्यों को रहे हैं यह सवाल हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है । अकेला आपातकाल का प्रसंग गवाह है कि कितने पत्रकार पेट के बल लेट गए थे । इस दौर में जैसी रीढ़विहीनता और केंचुए सी गति पत्रकारों ने दिखाई थी उस प्रसंग को हम सब भले भूल जाएं, देश कैसे भूल सकता है ? सारे कुछ के बावजूद अखबार कभी सिर्फ उद्योग की भूमिका में नहीं रह सकते । व्यापार के लिए भी नियम और कानून होते हैं । व्यापार के नाम पर भी ग्राहक को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता । आजादी के बाद हमारे अखबार अपनी सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से दूर हटे हैं ।

स्वतंत्रता मिलने के बाद राजनीतिक नेताओं, अफसरों, माफिया गिरोहों की सांठगांठ से सार्वजनिक धन की लूटपाट एवं बंदरबांट में देश का कबाड़ा हो गया, पर हिंदी के अखबारों की इन प्रसंगों पर कोई जंग या प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती । उल्टे एसे घृणित समूहों-जमातों के प्रति नरम रुख अपनाने एवं उन्हें सहयोग देने के आरोप पत्रकारों पर जरूर लगे । सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति ऐसी समर्पण भावना ने न सिर्फ हिंदी क्षेत्र पत्रों की गरिमा गिराई वरन पूरे व्यवसाय को कलंकित किया । इसी के चलते अखबारों में आम जनता की आवाज के बजाय सत्ता की राजनीत और उसके द्वन्द प्रमुखता पाते हैं ।

अखबारों की बड़ी जिम्मेदारी थी कि वे आम पाठकों के पास तक पहुंचते और उनसे स्वस्थ संवाद विकसित करते । कुच समाचार पत्रों ने ऐसे प्रयास किए भी किंतु यह हिंदी क्षेत्र की पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति न बन सकी । मुख्यधारा की हिंदी पत्रकारिता ने मूलतः शहरी मध्य वर्ग के पाठकों को केन्द्र में रखकर अपना सारा ताना-बाना बुना । इसके चलते अखबार सिर्फ इन्हीं पाठकों के प्रतिनिधि बन कर रह गए और समाज का एक बड़ा तबका जो गरीबी, अत्याचार एवं व्यवस्था के दंश को झेल रहा है, अखबारों की नजर से दूर है । ऐसे में अखबारों की संवेदनात्मक ग्रहणशीलता पर सवालिया निशान लगते हैं तो आश्चर्य क्या है ? इस संदर्भ में आप अंग्रेजी अखबारों की तुलना हिंदी अखबारों से करके प्रसन्न हो सकते हैं और यह निष्कर्ष बड़ी आसानी से निकाल सकते हैं कि हम हिंदी वाले उनकी तुलना में ज्यादा संवदनाओं से युक्त हैं । परंतु अंग्रेजी पत्रकारिता ने तो पहले ही बाजार की सत्ता और उसकी महिमा के आगे समर्पण कर दिया है । अंग्रेजी के अपने खास पाटक वर्ग के चलते उनकी जिम्मेदारियां अलग हैं । उनके केन्द्र में वैसे भी मनुष्य तो नहीं ही है । किन्तु भारत जैसे विविध स्तरों पर बंटे देश में हिंदी अखबार की जिम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है । क्योंकि अगर हम व्यापक पाठक वर्ग की बात करते हैं तो हमार जिम्मेदारियां अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले बड़ी हैं । वस्तुतः हिंदी अखबारों कोअपनी तुलना भाषाई समाचार पत्रों से करनी चाहिए । जो आज स्वीकार्यता के मामले में अपने पाठकों के बीच खासे लोकप्रिय हैं । यहां अंग्रेजी पत्रों का वैचारिक योगदान जरूर हिंदी पत्रों के लिए प्रेरणआ बन सकता है । इस पक्ष पर हिंदी के पत्र कमजोर साबित हुए हैं । हिंदी अखबारों में वैचारिकता एवं बोद्धिकता का स्तर निरंतर गिरा है । अब तो गंभीर समझे जाने अखबार भी अश्लील एवं बेहूदा सामग्री परोसने में कोई संकोच नहीं करते और यह सारा कुछ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आतंक में हो रहा है । इस आतंक में आत्मविश्वास खोते संपादक एवं उनके अखबार कुछ भी छापने पर आमादा हैं । सनसनी, झूठ और अश्लीलता उन्हें किसी भी चीज से परहेज नहीं है ।
सत्ता से आलोचनात्मक विमर्श रिश्ता बनाने एवं जनता की आवाज उस तक पहुंचाने के बजाय अखबार उनसे रिश्तेदारियां गांठने में लगे हैं । प्रायः अखबारों पर उसके पाठकों के बजाय विज्ञापनदाताओं एवं राजनेताओं का नियंत्रण बढ़ता जा रहा है । खबरपालिका की अंदरुनी समस्याओं को हल करने एवं उनके बीच से रास्ता निकालने के बजाय आत्म-समर्पण जैसी स्थितियों को विकल्प माना जा रहा है । ऐसे में पाठक और अखबार के रिश्ते मजबूत हो सकते हैं ? कोई अखबार या उसकी आवाज कैसे पाठकों के दिल में उतर जाएगी ? उत्पाद बन चुका सुबह का अखबार तभी अपनी आभा खोकर शाम तक रद्दी की टोकरी में चला जाता है । अखबार सार्वजनिक सवालों पर बहस का वातावरण बनाने में विफल रहे हैं । भाषा के सवाल पर हिंदी अखबार खासे दरिद्र हैं । सहज-सरल भाषा के प्रयोग का नारा पत्रकारों के लिए शब्दों के बचत की प्रेरणा बन गया है । ऐसे में तमाम शब्द अखबारों से गायब हो गए हैं । इसका एक बहुत बड़ा कारण है भाषा के प्रति हमारा अल्पज्ञान एवं उसके प्रति लापरवाही है । दूसरा बड़ा कारण हमारा बौद्धिक कहा जाने वाला वर्ग अखबारों से कट सा गया है । उसने अखबारों को बेवजह की चीज मान लिया है । हिंदी पत्रकारिता में विचारशीलता के लिए कम हो आई जगह से पाठकों को वैचारिक नेतृत्व मिलना बंद हो गया । इस बौद्धिक नेतृत्व के अभाव ने भी पाठक एवं अखबार के रिश्तों को खासा कमजोर किया । संवेदनाएं कम हुई, राग घटा एवं शब्दों की महत्ता घटी । बौद्धिकों ने हिंदी क्षेत्र की पत्रकारिता पर दबाव बनाने के बजाय इस क्षेत्र को छोड़ दिया । फलतः आज हमारे पास सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, राजेन्द्र माथुर, श्रीकांत वर्मा, प्रभाष जोशी जैसे संपादकों का दर अतीत की बात बन गई है ।

यह बात खासी महत्वपूर्ण है कि हिंदी पत्रकारिता का वैचारिक अधिष्ठान एवं श्रीगणेश ऐसा है कि व जनसंघर्षों में ही फल-फूल सकती है । अब रास्ता यही है कि अखबार की पूंजी से घृणा करने के बजाय ऐसे रिश्तों का विकास हो, जिसमें देश का बौद्धिक तबका भी अपना मिथ्याभिमान छोड़कर अखबार की दुनिया का हमसफर बने । क्योंकि तकनीकी चमक-दमक अखबार की प्रस्तुति को बेहतर बना सकती है, उसमें प्राण नहीं भर सकती ।

हिंदी क्षेत्र में एक नए प्रकार के पाठक वर्ग का उदय हुआ है जो सचेत है और संवाद को तैयार है । वह तमाम सूचनाओं के साथ आत्मिक बदलाव वाला अखबार चाहता है । वह सच के निकट जाना चाहता है । इसलिए चुनौती महत्व की है और यह जंग हिंदी अखबारों को पाठकों के साथ जुड़कर ही जीतनी होगी । क्योंकि लाख नंगेपन से भी अखबार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का मुकाबला नहीं कर सकता । इसके लिए उसमें एक संवेदना जगानी होगी जो अपने पाठकों से संवाद करे, बतियाए, उन्हें रिक्त न छोड़े । अपने युग की चुनौतियों, बाजार के गणित का विचार करते हुए अखबार खुद को तैयार करें यह समय की मांग है । हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नैतिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन ही इस शून्य को भर सकता है ।

1 comment:

Kumar Ravi Ranjan said...

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