सर्वेश्वर की पत्रकारिता – उपलब्धि और सीमाएं



अपने तीखे तेवरों से सम्पूर्ण भारतीय प्रेस जगत को चमत्कृत करने वाले सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की उपलब्धियां बड़े महत्व की हैं । सर्वेश्वर जी मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे, फिर भी वे जब पत्रकारिता में आए तो उन्होंने यह दिखाया कि वे साथी पत्रकारों से किसी मामले में कमतर नहीं हैं । दिनमान के प्रारंभ होने पर उसके संस्थापक संपादक श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय न कवि सर्वेश्वर में छिपे पत्रकार को पहचाना तथा उन्हें दिनमान की टीम में शामिल किया । दिनमान पहुंच कर सर्वेश्वर ने तत्कालीन सवालों पर जिस आक्रामक शैली में हल्ला बोला तथा उनके वाजिब एवं ठोस उत्तर तलाशने की चेष्टा की, वह महत्वपूर्ण है । खबरें और उनकी तलाश कभी सर्वेश्वर जी की प्राथमिकता के सवाल नहीं रहे, उन्होंने पूरी जिंदगी खबरों के पीछे छिपे अर्थों की तलाश में लगाई । वे घटनाओं की तह तक जाकर उनके होने की प्रक्रिया की पूरी पड़ताल करते थे और जनमत निर्माण के उत्तरदायित्व को निभाते थे ।

उन्होंने समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया । उन्होंने बचपन एवं युवावस्था का काफी समय गांव में बड़ी विपन्नता एवं अभावों के बीच गुजारा था । वे एक छोटे से कस्बे से आए थे । जीवन में संघर्ष की स्थितियों ने उनको एक विद्रोही एवं संवेदनशील इन्सान बना दिया था । वे गरीबों, वंचितों, दलितों पर अत्याचार देख नहीं पाते थे । ऐसे प्रसंगों पर उनका मन करुणा से भर उठता था । जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया उनके पत्रकारिता लेखन एवं कविताओं में दिखती है । उन्होंने आम आदमी की जिंदगी को, हमारे आपके परिवेश के संकट को आत्मीय, सहज एवं विश्वसनीय शिल्प में ढालकर व्यक्त किया है । उनका कहा हुआ हमारी चेतना में समा जाता है । पाठक को लगता है इस सबमें उसकी बहुत बड़ी हिस्सेदारी है । इन अर्थों में सर्वेश्वर परिवेश को जीने वाले पत्रकार थे । वे न तो चौंकाते हैं, न विज्ञापनी वृत्ति को अपनाते हैं और न संवेदना और शिल्प के बीच कोई दरार छोड़ते हैं ।

श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पत्रकारिता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह अपने परिवेश पर चौकस निगाहें रखते हैं । उन्होंने राष्ट्रीय सीमाओं से मिली अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को भी देखा है । वे गांधी, नेहरु, इंदिरा गांधी, लोहिया, विनोबा के देश को भी देखते हैं तो दुनिया में घट रही घटनाओं पर भी नजर रखते हैं । उन्होंने लोकतंत्र का अर्थ समझा है तो संसद की दृश्यावली को भी समझा है । वे महंगाई के भूत-पिशाच को भी भोगते रहे हैं और व्यवस्था की भ्रष्टता का भी अनुभव करते हैं । उनकी नजर भूखे आदमी से लेकर सत्ता के भूखे भेड़ियों तक है । इसी के चलते उनकी पत्रकारिता का एक-एक शब्द परिवेश का बयान है । सर्वेश्वर जी इसी के चलते अपने युगीन संदर्भों, समस्याओं और देश के बदलते मानचित्र को भूल नहीं पाते । उन्होंने युद्ध, राजनीति, समाज, लोकतंत्र, व्यवस्था गरीबी, कला-संस्कृति हर सवाल पर अपनी कलम चलाई है । युद्ध हो या राजनीति, लोकतंत्र हो या व्यवस्थाकर्ताओं का ढोंग, गरीबी हटाने का नारा हो या कम्बोडिया पर हुए अत्याचार का सवाल या अखबारों की स्वायत्तता का प्रश्न, सर्वेश्वर सर्वत्र सजग हैं । उनकी दृष्टि से कुछ भी बच नहीं पाता । फलतः वे घुटन और बेचैनी महसूस करते हुए, आवेश में आकर कड़ी से कड़ी बात करने में संकोच नहीं करते । उनकी पत्रकारिता संवेदना के भावों तथा विचारों के ताप से बल पाती है । वस्तुतः सर्वेश्वर की पत्रकारिता में एक साहसिक जागरुकता सर्वत्र दिखती है ।

सर्वेश्वर जी के लिए पत्रकारिता एक उत्तदायित्वपूर्ण कर्म है । वे एक तटस्थ चिंतक, स्थितियों के सजग विश्लेषक एवं व्याख्याकार हैं । सर्वेश्वर न तो सत्ता की अर्चना के अभ्यासी हैं और न पत्रकारिता में ऐसा होते देखना चाहते हैं । समसामयिक परिवेश कि विसंगतियों और राजनीति के भीतर फैली मिथ्या-चारिता को भी वे पहचानते हैं । वे हमारी सामाजिक एवं व्यवस्थागत कमियों को भी समझते हैं । इसीलिए वे अपने पाठक में एक जागरुकता के भाव भरते नजर आते हैं ।

सर्वेश्वर जी के पत्रकार की संवेदना एवं सम्प्रेषण पर विचार करने से पूर्व यह जानना होगा कि कलाकारों की संवेदना, आम आदमी से कुछ अधिक सक्रिय, अधिक ग्रहणशील और अधिक विस्तृत होती हैं । सर्वेश्वर की संवेदना के धरातलों में समसामयिक संदर्भ, सांस्कृतिक मूल्य, मनोवैज्ञानिक संदर्भ और राजनीति तक के अनुभव अनुभूति में ढलकर संवेदना का रूप धारण करते रहे हैं । अनेक संघर्षों की चोट खाकर सर्वेश्वर का पत्रकार अपनी संवेदना को बहुआयामी और बहुस्तरीय बनाता रहा है । इसके चलते सर्वेश्वर की संवेदना स्वतः पाठकीय संवेदना का हिस्सा बन गई है । इस कारण उनके लेखन में एक संवेदनशीलता है जो आसपास के संदर्भ दृश्यों से बल पाती है ।

वस्तुतः सर्वेश्वर जी का पत्रकारिता समझौतों के खिलाफ है । वे सदैव लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित रहे हैं । उनकी पत्रकारिता में आम आदमी की पीड़ा को स्वर मिला है । इसके चलते उन्होंने सामाजिक जटिलताओं एवं विसंगतियों पर तीखे सवाल किए हैं । आजादी के बाद के वर्षों में साम्राज्यवादी शक्तियों और उपनिवेशवादी चरित्रों ने अमानवीयता, पशुता, मिथ्या, दंभ और असंस्कृतिकरण को बढ़ावा दिया है। प्रजातंत्र को तानाशाही का पर्याय बना दिया है, मनमानी करने का माध्यम बना दिया है । फलतः गरीबी, भूख, बेकारी और भ्रष्टाचार बढ़ा है । ये स्थितियां सर्वेश्वर को बराबर उद्वेलित करती हैं और उन्होंने इन प्रश्नों पर तीखे सवाल खड़े किए हैं । उनका पत्रकार ऐसी स्तितियों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ता नजर आता है । व्यक्ति की त्रासदी, समाज का खोखला रूप और आम आदमी का दर्द – सब उनकी पत्रकारिता में जगह पाते हैं । यह पीड़ा सर्वेश्वर की पत्रकारिता में बखूबी महसूसी जा सकती है। वे अपने स्तंभ चरचे और चरखे में कभी दर्द से, कभी आक्रोश से तो कभी विश्लेषण से इस पीड़ा को व्यक्त करते हैं । पत्रकार सर्वेश्वर इन मोर्चों पर एक क्रांतिकारी की तरह जूझते हैं ।

सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता में वैचारिकता की धार भी है । उनकी वैचारिकता का मूल मंत्र यह है कि वे अराजकता, विश्रृंखलता, विकृति, अस्तित्वहीनता और सड़ांध कोकम करके स्वस्थ जीवन दृष्टि के आकांक्षी हैं । वे स्वतंत्र चिंतन के हिमायती, निजता एवं अस्मिता के कायल, जिजीविषा के साथ दायित्वबोध के समर्थक, पूंजीवादी, अवसरवादी और सत्तावादी नीतियों के कटु आलोचक रहे तथा पराश्रित मनोवृत्तियों के विरोधी हैं । सीधे अर्थ में सर्वेश्वर की पत्रकारिता समाजवादी चिंतन से प्रेरणा पाती है । वे एक मूल्यान्वेषी पत्रकार दृष्टि के विकास के आकांक्षी हैं जिसमें मनुष्य, मनुष्य और जीवन रहे हैं ।

सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता अपने समय, समाज और परिवेश को कभी उपेक्षित करके नहीं चलती । परिवेश के प्रति सचेतन दृष्टि, बदलते माहौल के प्रति संपृक्ति और समकालीन घटना-प्रसंगों व उनसे उद्भूत स्तितियों के प्रति साझेदारी सर्वेश्वर की पत्रकारिता का एक वृहद एवं उल्लेखनीय संदर्भ है।

सर्वेश्वर की पत्रकारिता में स्वातंत्र्योत्तर भारत के कई रंग हैं, वे चुनौतियां हैं जो हमारे सामने रही हैं, वे विचारणाएं रहीं हैं जो हमने पाई हैं, वे समस्याएं हैं जो हमारे लिए प्रश्न रही हैं र साथ ही वह वैज्ञानिक बोध है जिसने बाहरी सुविदाओं का जाल फैलाकर आदमी को अंदर से निकम्मा बना दिया है । भूख, बेकारी, निरंतर बढ़ती हुई दुनिया, आदमी, उसके संकट और आंतरिक तथा बाह्य संघर्ष, उसकी इच्छाएं, शंकाएं, पीड़ा और उससे जन्मी निरीह स्थितियां, शासन तंत्र, राजनीतिक प्रपंच, सत्ताधीशों की मनमानी, स्वार्थपरता, अवसरवादिता, शोषकीय वृत्ति, अधिनायकवादी आदतों, मिथ्या आश्वासन, विकृत मनोवृत्तियां, सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन, ईमान बेचकर जिंदा रहने की कोशिश जैसी अनगिनत विसंगतियां सर्वेश्वर की लेखकीय संवेदना का हिस्सा बनी हैं । परिवेश के प्रति यह जाकरुकता पत्रकार सर्वेश्वर की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है । कहने का तात्पर्य सर्वेश्वर की पत्रकारिता में समसामयिक परिवेश का गहरा साक्षात्कार मिलता है ।

सर्वेश्वर बाद के दिनों में अपने समय की सुप्रसिद्ध बाल पत्रिका पराग के सम्पादक बने । उन्होंने पराग को एक बेहतर बाल पत्रिका बनाने की कोशिश की । इन अर्थों में उनकी पत्रकारिता में बाल पत्रकारिता का यह समय एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप रेखांकित किया जाना चाहिए । बाल साहित्य के सृजन को प्रोत्साहन देने वालों में सर्वेश्वर का स्थान महत्वपूर्ण था । उन्होंने इस भ्रम को तोड़ने का प्रयास किया कि बड़ा लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखता तथा उच्च बौद्धिक स्तर के कारण बच्चों से संवाद स्थापित नहीं कर सकता । सर्वेश्वर ने यह कर दिखाया । पराग का अपना एक इतिहास रहा है । आनंद प्रकाश जैन ने इसमें कई प्रयोग किए । फिर कन्हैया लाल नन्दन इसके संपादक रहे । नंदन जी के दिनमान का संपादक बनने के बाद सर्वेश्वर ने पराग की बागडोर संभाली । सर्वेश्वर के संपादन काल पराग की गुणवत्ता एवं प्रसार में वृद्धि हुई । उन्होंने तमाम नामवर साहित्यकारों पराग से जोड़ा और उनसे बच्चों के लिए लिखवाया । उन्होंने ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निबाही । सर्वेश्वर मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता । सर्वेश्वर की यह अग्रगामी सोच उन्हें एक बाल पत्रिका के सम्पादक के नाते प्रतिष्ठित और सम्मानित करती है ।

इसके अलावा सर्वेश्वर ने भाषा के सवाल पर महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित की । उन्होंने भाषा के रचनात्मक इस्तेमाल पर जोर दिया, किंतु उसमें दुरुहता पैदा न होने दी । सर्वेश्वर की पत्रकारिता में सम्प्रेषण शक्ति गजब की है । उन्हें कथ्य और शिल्प के धरातल पर सम्प्रेषणीयता का बराबर ध्यान रखा है । उनकी भाषा में जीवन और अनुभव का खुलापन तथा आम आदमी के सम्पृक्ति का गहरा भाव है । वे एक अच्छे साहित्यकार थे इसलिए उनकी लेखनी ने पत्रकारिता की भाषा को समर्थ एवं सम्पन्न बनाया । सर्वेश्वर का सबसे बड़ा प्रदेय यह था कि उन्होंने जनभाषा को अनुभव की भाषा बनाया, पारम्परिक आभिजात्य को तोड़कर नया, सीधा सरल और आत्मीय लिखने, जीवन की छोटी से छोटी चीजों को समझने की कोशिश की ।

सर्वेश्वर में एक तीखा व्यंग्यबोध भी उपस्थित था । अपने स्तंभ चरचे और चरखे में उन्होंने तत्कालीन संदर्भों पर तीखी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां लिखीं । सर्वेश्वर के व्यंग्य की विशेषता यह है कि वह मात्र गुस्सा न होकर शिष्ट, शालीन और रचनात्मक है । वह आक्रामक तो है पर उसकी शैली महीन है । सर्वेश्वर ने प्रायः व्यंग्य के सपाट रूप को कम ही इस्तेमाल किया है । उनकी वाणी का कौशल उनको ऐसा करने से रोकता है । प्रभावी व्यंग्य वह होता है जो आलंबन को खबरदार करते हुए सही स्थिति का अहसास करा सके । ड्राइडन ने एक स्थान पर लिखा है कि “किसी व्यक्ति के निर्ममता से टुकड़े-टुकड़े कर देने में तथा एक व्यक्ति के सर को सफाई से धड़ से अलग करके लटका देने में बहुत अंतर है । एक सफल व्यंग्यकार अप्रस्तुत एवं प्रच्छन्न विधान की शैली में अपने भावों को व्यक्त कर देता है । वह अपने क्रोध की अभिव्यक्ति अलंकारिक एवं सांकेतिक भाषा में करता है ताकि पाठक अपना स्वतंत्र निष्कर्ष निकाल सके । व्यंग्यकार अपने व्यक्तित्व को व्यंग्य से अलग कर लेता है । ताकि व्यंग्य कल्पना के सहारे अपने स्वतंत्र रूप में कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश कर सके ।”1

कुल मिला कर सर्वेश्वर की पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता का एक स्वर्णिम अध्याय है जो पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ती है । सर्वेश्वर ने अपनी लेखनी से जहाँ पत्रकारिता को लालित्य का पुट दिया वहीं उन्होंने उनकी वैचारिक तपन को कम नहीं होने दिया । शुद्ध भाषा के आग्रही होने के बावजूद उन्होंने भाषा की सहजता को बनाए रखने का प्रयास किया । भाषा के स्तर पर उनका योगदान बहुत मौलिक था । वे इलेक्ट्रॉनिक मीजिया की पत्रकारिता से प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता में आए थे पर यहाँ भी उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई । हालांकि वे सदैव पत्रिका संपादन (दिनमान एवं पराग)से जुड़े रहे, इसलिए उन्हें कभी दैनिक समाचार पत्र में कार्य करने का अनुभव नहीं मिला । हो सकता है कि यदि उन्हें किसी दैनिक समाचार पत्र में कार्य करने का अवसर मिलता तो वे उस पत्र पर अपनी छाप छोड़ पाते । पत्रिका संपादन के एक निष्णात व्यक्तित्व होने के नाते वे एक दैनिक समाचार पत्र के कैसे इस्तेमाल के पक्ष में थे, वे एक सम्पूर्ण दैनिक निकालते तो उसका स्वरूप क्या होता, यह सवाल उनके संदर्भ में महत्पूर्ण हैं । इसके बावजूद दिनमान के प्रारंभकर्ताओं में वे रहे और उन्होंने एक बेहतर समाचार पत्रिका हिंदी पत्रकारिता को दी जिसका अपना एक अलग इतिहास एवं योगदान है ।

सर्वेश्वर की रुचियां व्यापक थीं, वे राजनीति, कला, संस्कृति, नाटक, साहित्य हर प्रकार के आयोजनों पर नजर रखते थे । उनकी कोशिश होती थी कि कोई भी पक्ष जो आदमी की बेहतरी में उसके साथ हो जाए, छूट न जाए । उनकी यह कोशिश उनकी पत्रकारिता को एक अलग एवं अहम दर्जा दिलाती है । साहित्य के प्रति अपने अतिशय अनुराग के चलते वे पत्रकारिता जगत के होलटाइमर कभी न हो पाए । अगर ऐसा हो पाता तो शायद हिंदी पत्रकारिता जगत को क साथ ज्यादा गति एवं ऊर्जा मिल पाती । पर हाँ इससे हिंदी जगत को एक बड़ा साहित्यकार न मिल पाता । सर्वेश्वर पत्रकारिता को जीवन भर एक मिशन मानकर चले यह उनकी पत्रकारिता का सबसे बड़ा प्रदेय है ।

वास्तव में सर्वेश्वर पत्रकारिता के क्षेत्र में ईमानदार अभिव्यक्ति के प्रति प्रतिबद्ध रहे । इस अर्थ में अनुभूति की ईमानदारी उनकी उपलब्धि मानी जा सकती है । वस्तुतः सर्वेश्वर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्होंने स्वयं को सदैव लोक से जोड़े रखा । आंचलिक शब्दों के प्रयोग के कारण उनकी भाषा का स्वरूप और भी ताजा आर अप-टू-डेट हो गया है । यही कारण है कि उनकी भाषा, आम भाषा होते हुए भी हर प्रकार की अभिव्यक्ति में पूर्ण तथा सक्षम है । इन संदर्भों के प्रकाश में सर्वेश्वर की पत्रकारिता वस्तुतः एक प्रेरणास्पद अध्याय है । उनकी उपलब्धियां महत्व की हैं और नई पीढ़ी के लिए प्रेरक भी ।


उपसंहार


“अब मैं कवि नहीं रहा
एक काला झण्डा हूँ ।
तिरपन करोड़ भौंहों के बीच मातम में
खड़ी है मेरी कविता ।”2

कवि सर्वेश्वर की यह घोषणा वस्तुतः पत्रकार सर्वेश्वर पर भी पूर्णतः लागू होती है । उनकी पत्रकारिता भी ठीक उनकी कविता की तरह ईमानदार अभिव्यक्ति के साथ आम आदमी के पक्ष में खड़ी है । सर्वेश्वर जी ने जीवनपर्यंन्त हिंदी पत्रकारिता की सेवा की । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (रेडियो) से लेकर वे दिनमान एवं पराग के यशस्वी पत्रकार व संपादक के रूप में जाने गए । उन्होंने तमाम सामाजिक सवालों पर अपनी तल्ख टिप्पणियां की एवं रास्ता दिखाया । पत्रकारिता में मिशनरी भाव से आए थे और ताजिंदगी उन्होंने यह मार्ग बिसराया नहीं । उन्होंने अपनी पत्रकारिता में विभिन्न आयामों का विवेचन, विश्लेषण किया । उनकी पत्रकारीय दृष्टि एवं पैनेपन के मद्देनजर यह माना जा सकता है कि वे सिर्फ पत्रकार न थे वरन अच्छे विचारक, चिंतक एवं भविष्टदृष्टा भी थे । उन्होंने सारी जिंदगी जो कुछ लिखा वह आज भी प्रासंगिक है । इससे पता चलता है कि सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी अनेकानेक तात्कालिक घटनाएं और खबर एक मूल्यधर्मी कलम पाकर कैसा स्थायी महत्व प्राप्त कर लेती है ।

दिनमान में वर्षों तक प्रकाशित उनका लोकप्रिय स्तंभ चरचे और चरखे सर्वेश्वर की जागरुक पत्रकारिता का महत्वपूर्ण परिणाम है । सर्वेश्वर ने काल्पनिक बातचीत, रिपोर्ताज, फन्तासी, लोककथा आदि विविध रचना-रूपों का सहारा लिया है और पत्रकारिता को एक नया भाषायी संस्कार देने की भी कारगर कोशिश की है । वस्तुतः सर्वेश्वर की समूच पत्रकारिता उनकी सामाजिक चिंताओं का जीवन्त दस्तावेज है और अपने समाज को बेहतर बनाने की छटपटाहट से भरे प्रत्येक पाठक को और अधिक साहस तथा सम्बल प्रदान करती है । सर्वेश्वर स्थानीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक सवालों पर समग्र दृष्टि से लिखते थे । दिनमान और पराग से इतर भी सम्पूर्ण पत्रकारिता को गौरवमण्डित तथा संस्कारित करने में सर्वेश्वर का महत्वपूर्ण योगदान है ।

बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने पराग के माध्यम से सर्वथा नए प्रययोग किए और उसे एक सम्मानित एवं लोकप्रिय बाल पत्रिका का दर्जा दिलाया । बच्चों से संवाद करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी । पराग में छपने वाला उनका संपादकीय स्तंभ थोड़ा कहा बहुत समझना उसका जीवंत दस्तावेज है ।

सर्वेश्वर की पत्रकारिता वस्तुतः राजा को नंगा कहने और करने के साहस से जुड़ी है । वे इस मामले में लीपापोती करने वाले पत्रकार न थे । खरी बात कहना और उस पर डटे रहना उनकी पत्रकारिता का निपट सत्य है । सर्वेश्वर मानते थे कि पाठकों एवं अपने समाज के प्रति उनकी एक नैतिक जिम्मेदारी एवं जवाबदेही है । अपनी इस जिम्मेवारी को सर्वेश्वर ने पूरी तनदेही से जीवन भर निभाया, वे हमेशा एक चौकस दस्ते की तरह निगरानी करते नजर आए । सर्वेश्वर विसंगतियों के खिलाफ अपनी इस लड़ाई को एक धर्मयुद्ध मानकर लड़ते रहे । क्योंकि वे दुनिया को ज्यादा बेहतर देखना चाहते हैं । बदलना चाहते हं । आम आदमी की जिंदगी को खुशहाल देखना चाहते हैं । सर्वेश्वर अपनी पूरी सृजन यात्रा में इस सपने को जिंदा रखना एवं फलीभूत होते देखना चाहते हैं । इसीलिए वे युद्ध स्थिति नामक एक कविता में लिखते हैं –

“एक युद्ध हर क्षण
मैं अपने भीतर लड़ता हूँ
धरती को बड़ा करने के लिए
और दृश्यों को सुंदर,
सौन्दर्य को उदार करने के लिए
और आस्थाओं को समुंदर ।”3

कहें तो सर्वेश्वर की यह पीड़ा ही उन्हें सदी का महत्वपूर्ण पत्रकार बनाती है । जो आम आदमी की जिंदगी के संत्रासों से जुड़ी है । उसे हौसला देती है । लड़ने और डटे रहने का माद्दा देती है । निष्कर्षतः सर्वेश्वर हिंदी पत्रकारों में श्रेष्ठ संपादक, मौलिक चिंतक, स्पष्ट वक्ता तथा गंभीर अध्येता थे । अध्ययन, लेखन एवं चिंतन से निरंतर उन्होंने अपनी लेखनी को समृद्ध किया । पत्रकार के रूप में उनकी सामाजिक चिंताएं बहु व्यापक एवं सोच बुनियादी थी । जो सही मायनों में एक सुंदर समाज बनाने की आकांक्षा से भरी-पूरी थी ।

संदर्भ –
1. आधुनिक हिंदी कविता में व्यंग्य – बरसाने लाल चतुर्वेदी (पृ. 21)
2. सर्वेश्वर और उनकी कविता – कृष्णदत्त पालीवाल (पृ. 146)
3. वही

संदर्भ ग्रंथ सूची
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9. पालीवाल, कृष्णदत्त – सर्वेश्वर और उनकी कविता, लिपि प्रकाशन, नई दिल्ली
10. शर्मा, हरिचरण – सर्वेश्वर की काव्य संवेदना और सम्प्रेषण, पंचशील प्रकाशन, जयपुर
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